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श्री जम्बूस्वामी चरित्र
१०३ में अभी भी समर्थ हूँ।"
- ऐसे मर्मांतक वचन सुनकर व्योमगति अपनी तलवार निकालकर रत्नचूल को मारने दौड़ा, तब जम्बूकुमार ने उसे ऐसी उद्दण्डता करने से रोका। तब अत्यन्त क्रोध से जिसके नथुने अत्यंत फूल रहे थे तथा बाहुयें फड़क रही थीं, ऐसा मृगांक चीखता हुआ कुमार से बोला - "हे कुमार! आप इस अधम रत्नचूल को बंधनमुक्त कर दो, मैं इसे अभी इसकी उद्दण्डता का मजा चखाकर इसे यमलोक पहुँचाता हूँ।"
तब जम्बूकुमार अत्यन्त न्यायपूर्ण एवं शांतिपूर्ण वचनों से समझाने की चेष्टा करने लगे, परन्तु मदांध न माना तो उन्होंने रत्नचूल को मुक्त कर दिया। तब रत्नचूल एवं मृगांक में घमासान युद्ध हुआ एवं देखते ही देखते मृगांक परास्त होकर भूमि पर गिर गया तथा रत्नचूल के द्वारा बाँध लिया गया। इस प्रकार रत्नचूल अपने को विजयी मानकर मृगांक को दृढ़ बंधनों से बाँधकर रणक्षेत्र से लेकर भागने लगा।
तब तुरन्त जम्बूकुमार बोले - "रे मदांध मूढ़! मैं मृगांक के साथ हूँ, मेरे रहते हुए तू मृगांक को लेकर भागने की कुचेष्टा कर रहा है। जरा अपने बल को देख? क्या शेषनाग के सिर की उत्तम मणि को बेजान कीट ले जा सकता है? क्यों अपने ही हाथ मृत्यु को बुला रहा है? हस्तविहीन होकर भी महामेरु को हिलाने का साहस! मानो मृगों द्वारा सिंह की शय्या पर सोने का साहस करने जैसा हास्यास्पद कार्य तू कर रहा है। लाता है तेरी यह मदांध बुद्धि तुझे शेष जोवन भी संकटों से जूझने को बाध्य कर रही है। बड़े ही आश्चर्य एवं लज्जा की बात है कि परास्त योद्धा भी क्या इतना दुःसाहस कर सकता है ?" ___ जम्बूकुमार के अपमानजनित वचनों से रत्नचूल एकदम कुपित होकर बोला - "आ जाओ कुमार! अब हम एक बार फिर से युद्ध कर लें।"
जम्बूकुमार दयामयी हृदय वाले तो हैं ही. वे व्यर्थ में सेना का संहार नहीं चाहते, इसलिए उन्होंने कहा - "सेनाओं का युद्ध नहीं होगा, यदि तुझे अकेले ही युद्ध करना हो तो मैं भी तैयार