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जैनधर्म की कहानियाँ - “कुमार! आप धन्य हो। आप कामदेव सदृश अद्भुत रूप के धारी हो, महा बुद्धिमान हो, आप की जय हो। आज आपने क्षत्रिय धर्म के ऐश्वर्य को अच्छी तरह प्रगट कर दिखाया है।"
केरल नगर के राजा की सेना में जीत के नगाड़े बजने लगे। तब व्योमगति विद्याधर ने जम्बूकुमार का मृगांक से परिचय करा दिया। राजा मृगांक को अपनी जीत का हर्ष समाये नहीं समा रहा था, अत: वह पुन: पुन: जम्बूकुमार का यशोगान करते हुए बोला - "हे कुमार! आप अतुल बल के धारी हो। आपकी धीरता एवं वीरता अवर्णनीय है। आपका शांतरस गर्भित वीररस जगत को आश्चर्यचकित कर देता है। आपकी वृत्ति एवं जीवनचर्या साधुवाद की पात्र है। आप कोई लोकोत्तर पुरुष जान पड़ते हो।"
इसतरह अनेक प्रकार से राजा मृगांक के हृदयोद्गार प्रस्फुटित हो रहे थे।
जम्बूकुमार का वैराग्यपूर्ण आत्मालोचन जम्बूकुमार ने जब युद्धक्षेत्र में कषायों से आत्मघात एवं प्राणिघात का भयानक दृश्य देखा तो वे पश्चाताप के सागर में डूब गये। सोचने लगे - “जल स्वभाव से शीतल ही होता है। वह अग्नि के संसर्ग से उष्णता का स्वाँग धारण कर लेने पर भी वास्तव में शीतलता का त्याग नहीं करता है। उसीप्रकार आत्मा स्वभाव से तो शांत ही है, पर कषायों से अशांत हो जाता है, इसलिए ज्ञानी पुरुषों ने दुर्गति के कारणभूत अज्ञान एवं मानादि कषायों को त्याग ही दिया है।
अरे रे! जो प्राणी इन्द्रियों के विषयों में आसक्त होते हैं, वे उसी तरह मरते हैं, जिस तरह पतंगा स्वयं आकर अग्नि में पड़कर मर जाता है। बिना पुण्य-उदय के विषयों का मिलना दुर्लभ है
और यदि मिल भी गये तो उनके भोगों की आग दिन-दूनी रात चौगुनी दहक-दहक कर जलाती ही रहती है। किंपाकफलवत् ये विषय-भोग नृत्यु तक का वरण कराते हैं। ऐसा होने पर भी अरे रे! ये बड़े-बड़े राजपुरुष भी इनका सेवन क्यों करते हैं? आश्चर्य है! महा आश्चर्य है!! लेकिन आत्मानंद से अपरिचित पुरुष मदांध हों! दुःख भोगें