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श्री जम्बूस्वामी चरित्र चलने की आवाज, हाथियों की चिंघाड़ एवं घोडों की हिनहिनाहट से नभ भी बहरा हो रहा था। धनुष्यों की टंकार, तलवार, मुद्गर, लोहदंड आदि शस्त्र भी सहस्र खंड हो भूमि में जा धंस गये थे। कितने ही योद्धा कमर टूट जाने से निष्क्रिय पड़े थ. कोई पैर से लंगड़ा हो गया था तो कोई हाथ से लूला। इतना ही नहीं, कहीं तो मात्र सिर-विहीन धड़ और कहीं धड़-विहीन सिर पड़े थे।
युद्धस्थल का हृदय-विदारक एवं वैराग्योत्पादक दृश्य देख जम्बूकुमार का अन्तर्मन एक ओर दया से भर आता था तो दूसरी ओर संयोगों की अनित्यता, अशरणता, अशुचिता एवं पृथक्ता के विचार से वैराग्यरस में डूब जाता था। उनका अन्त:करण संसार-देह-भोगों से विरक्ति के भावों में डूबकर सोचने लगा - “स्त्रियों की प्राप्ति एवं उनके भोगों को धिक्कार हो, धिक्कार हो! अरे, रे! एक स्पर्शन इन्द्रिय के अनंत बाधाजनक एवं अपार हिंसाकारक विषयों के लिए यह प्राणी कितना निर्दयी हो अगणित प्राणियों का वध करता है! अनेकों माता-बहनों को विधवा करता है। अनेक निरपराधी बालकों को अनाथ करता है। उनको मिलनेवाली सूखी रोटियों के टुकड़ों को भी यह पापी प्राणी छीन लेता है। उनको घर-द्वार रहित कर देता है। हे प्रभो! धिक्कार है! ऐसे राज्यपद को, धिक्कार है! इन इन्द्रिय-विषयों को !!
एक स्त्री की प्राप्ति में अपरंपार दुःख-संकटों को देख कुमार का हृदय उसी क्षण स्त्रियों से विरक्त हो गया। इसतरह कषायों के प्रलयकारी नृत्य ने कुमार के कोमल हृदय को झकझोर डाला।
पुन: जब उनका ध्यान युद्धक्षेत्र की तरफ गया तो मृगांक से अपराजित शत्रु को देख जम्बूकुमार रत्नचूल के सामने आये और लीलामात्र में ही उसका रथ तोड़ दिया। रत्नचूल भूमि पर आ गिरा। हाथी पर चढ़े मृगांक ने ज्यों ही रत्नचूल को भूमि पर गिरा देखा, वह तुरन्त हाथी से नीचे उतरकर उसे बाँधने के लिए दौड़ा, लेकिन उसके पहले ही जम्बूकुमार ने रत्नचूल को दृढ़ बंधनों से कस लिया। राजा रत्नचूल के बंदी होते ही उसकी शेष बची सारी सेना भी भाग गई।
जम्बूकुमार का पराक्रम देखकर राजा मृगांक एवं विद्याधर की पूरी सेना में जम्बूकुमार का जयघोष होने लगा। राजा मृगांक बोला