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श्री जम्बूस्वामी चरित्र तो इसमें आश्चर्य भी क्या है? सचमुच कोई आश्चर्य नहीं !
निज स्वरूप की विराधना से उत्पन्न हुआ यह मोहरूप पिशाच बड़ा भयंकर है। इससे पीछा छुड़ाना कठिन है। निजस्वरूप को भूलकर यह प्राणी पर को अपना मानकर मृग-मरीचिका के समान विषयों के सन्मुख दौड़ता है। यहाँ से सुख मिलेगा, वहाँ से सुख मिलेगा; परन्तु कुछ भी हाथ नहीं आता, तब आकुल-व्याकुल हो दुःखों के सागर में गोते लगाने लगता है। इस मिथ्या अंधकार का नाशक उपाय एकमात्र चैतन्यमय निज आत्मा की आराधना है तथा सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की उपासना है।
अरे रे! धिक्कार है मेरी चतुराई को, जो दूसरों को तो उपदेश दे, पर अपने आत्महित का नाश करे। ऐसे नेत्रों से क्या लाभ, जिनके होते हुए भी व्यक्ति गड्ढ़े में गिर जाता है? उस ज्ञान से भी क्या लाभ, जिससे ज्ञानी होकर भी जीव विषयों में फँसता रहे? अरे मैं भी तो ज्ञानी हूँ, मैंने यह क्या किया? मेरे ऊपर तो कोई राज्य का भार भी नहीं था। मैंने बड़ा अनर्थ किया, जो परोपकार हेतु कषाय में स्वयं जला और हजारों प्राणियों का जीवन नष्ट किया।
धिक्कार है! धिक्कार है!! ऐसे यश को, जो इतने हिंसाकर्म से प्राप्त हो। अरे दया! तू कहाँ भाग गई? हे हृदय ! तुम पुष्प से पाषाण कैसे बन गये? भो स्फटिक! तुम पर ये लाल, काले रंग कैसे चढ़ गये ? तुम क्रोध से काले और मान आदि से लाल-हरे कैसे बन गये। हे चैतन्य प्रभु! तुम अपनी प्रभुता को भूलकर पामर क्यों बन गये? तुम तो आत्मिक अतीन्द्रिय आनंद के आस्वादी हो, तुमने कषाय का स्वाद क्यों चखा? धिक्कार है इस गृहस्थ दशा को?''
इस प्रकार जम्बूकुमार मन ही मन अपनी खूब निंदा-गर्दा करते रहे। जिस समय जम्बूकुमार अपने कषायचक्र एवं कषाययुक्त शारीरिक क्रियाओं की आलोचना कर रहे थे, उसी समय बंधनग्रस्त रत्नचूल मन ही मन जम्बूकुमार की प्रशंसा कर रहा था - "गुण सदा निर्गुण होने पर (एक गुण में दूसरा गुण न होने पर) भी वे गुण किसी द्रव्य के ही आश्रय से पाये जाते हैं। हे स्वामी! आपमें