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परिशिष्टम् [३] धर्मसंग्रहवृत्तिगतोद्धरणानामकाराद्यनुक्रमः ॥]
[८२१ जो जहवायं न कुणइ, [उ.मा./५०४] ५ | ज्ञानदर्शनचारित्र- [ ]
४१५ जो जहवायं न कुणइ,
ज्ञानाचारित्रयुक्तोऽस्मि, [पि.नि./१८६] ७६०
[यो.शा.३/१५३वृ.] ७२६ जो जारिसेण संगं, [पञ्च./७३१] ७०४ | ज्ञानाद्याचारकथनमिति [ध.बि./६९] ३४ जो जेण सुद्धधम्मे, [ ]
७२ ज्ञानावरणीये वेद्ये, जो तं पुंजं छंडइ, [य.दि./८६] ५०७
[यो.शा.३/१५३वृ.] ७२६ जो देइ उवस्सयं [ ]
४५३ | ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य, [ ] ४५३
२६६ जो देइ उवस्सयं [श्रा.दि./१९८] ५४४ | ज्ञेया सकामा यमिनाम् [ ] ६८५ जो देइ कणयकोडिं, [सं.प्र.गु./६९] ११८
[झ] जो पुण गिहत्थमुंडो, [प्रत्या./२७६] ३६४ | झायइ पडिमाइ ठिओ, जो मागहो अ पत्थो,
[पञ्चा.१०/१९] ४५५ [ओ.नि./७१३] ५७८
[ठ] जो मुहपोत्तियं [व्य.सू.]|
| ठवणा मिलक्खु निंदु, जो संजओ वि एआसु,
[ओ.नि./४४०] ५२४ [पञ्च./१६२९] ७५८ | ठाऊणं संथारे, [य.दि./३५९] ६४२ जो संजओ वि एआसु,
ठाणं पमज्जिऊणं, [आ.नि./७०४] ६५३ [पञ्च./१६२९] ७६० | ठाणे अ दायए चेव, जो समो सव्वभूएसु,
[ओ.नि./४६२] ५३६ [आ.नि./७९८] १४९
[ण] जो सुअमहिज्जइ बहुं,
ण य पडिकूलेयव्वं, [ ]
७५१ 1 [व्य.भा.१०/६०४] ७३५ | णणु णेयमिहं पढिअं, [पञ्च./९२८] ७२७ जो सुअमहिज्जइ बहुं,
णवगनिवेसे दूरा, 1 [व्य.भा.१०/६०५] ७३५ [ओ.नि./२९१ प.व.२७३] ५१३ जो हुज्ज उ असमत्थो,
णाइविगिट्ठो अ तवो, [प.व./४४७] ५९०
- [पञ्च./१५७५] ७५३ जो हेउवायपक्खंमि, [पञ्च./९९३] ७३४ णाणस्स केवलीणं, [पञ्च./१६३६ ] ७५९ जो हेउवायपक्खंमि, [पञ्च./९९३] १३६ | णाणस्स होइ भागी, [वि.भा./३४५९] ४८६ जोए करणे सण्णा, [पञ्चा.१४/३] ६११ | णिक्खित्तभरो पायं, [पञ्चा.१०/३०] ४५५ जोगिंदिओवहि सुई, [ ] ६२७ | णिच्चं चिअ संपुण्णा जोयणसयं तु गन्ता,
[सं.प्र.देवा./१९६] २३८ [बृ.क.भा./९७३] १३७ | णिच्छयओ पुण एसो, [उ.प./४३३] २६ [ज्ञ]
णिच्छयसम्मत्तं [सद्धर्मविं./१७] ६४ ज्ञानचारित्रहीनोऽपि,
णिहाविगहापरिवज्जिएहिं [यो.शा.१/१७वृ.] ५७
[आ.नि./७०७] ६५४
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