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। २५ । लाये उनमेंसे वासुपूज्य मुख्य चतुर्विशति प्रतिमाको मूलनायक रूपसे अलग मन्दिर में स्थापितकी। इस प्रकार पांचवां मन्दिर श्री वासुपूज्य स्वामीका प्रसिद्ध हुआ। सं० १६४४ में बीकानेर से निकले हुए यात्री संघकी गुणविनयजी कृत चैत्य परिपाटी में इन पांचों मन्दिरोंका उल्लेख इस प्रकार पाया जाता है :
"पढम जिण बंदि बहु भाव पूरिय मणं, सुमति जिण नमवि नमि वासुपूज्यं जिनं । वीर जिण धीर गंभीर गुण सुन्दरं, कुसलकर कुसलगुरु भेटि महिमाधरं ॥२॥"
इससे निश्चित होता है कि सं० १६४४ तक बीकानेर में ये ५ चैत्य थे। इनके बाद सं० १६६२ मिती चैत्र वदि ७ के दिन नाहटों की गवाड़ स्थित विशाल एवं भव्य शत्रुञ्जयावतार ऋषभदेव भगवान्के मन्दिरकी प्रतिष्ठा युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरिजीके कर कमलोंसे हुई । यद्यपि डागोंकी गवाड़के श्री महावीर जिनालयकी प्रतिष्ठा कब हुई इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता फिर भी युगप्रधान जिनचन्द्रसूरिजीके विहारपत्र में सं० १६६३ में भी बीकानेर में सूरिजीके द्वारा प्रतिष्ठा होनेका उल्लेख होनेसे इस मन्दिरका प्रति ठा संवत् यही प्रतीत होता है। कविवर समयसुन्दरजी विरचित विक्रमपुर चैत्य परिपाटीमें इन सात मन्दिरोंका ही उल्लेख है। हमारे ख्यालसे यह स्तवन सं० १६६४ ७० के मध्य का होगा। इसी समयके लगभग श्री अजितनाथ जिनालयका निर्माण होना संभव है। नागपुरीतपागच्छके कवि विमलचारित्र, कनककीर्ति, धर्मसिंह और लालखुशाला इन चारों के चैत्य-परिपाटी स्तवनोंमें श्री अजितनाथजीके मन्दिरको अन्तिम मन्दिर के रूपमें निर्देश किया है। समयसुन्दरजी अपने तीर्थमाला स्तवनमें इन आठ चैत्योंका ही निर्देश करते हैं--"बीकानेर ज वंदियै चिरनंदियैरे अरिहंत देहरा आठ" इस तीर्थमालाका सर्वत्र अधिकाधिक प्रचार होने के कारण बीकानेरकी इन आठ मन्दिरोंवाले तीर्थके रूपमें बहुत प्रसिद्धि हुई। इसी समय दो गुरु मन्दिरोंका भी निर्माण हुआ जिनमेंसे पार्श्वचंद्रसूरि स्तूप सं० १६६२
और यु० जिनचन्द्रसूरि पादुका-स्तूप सं० १६७३ में प्रतिष्ठित हुए ! उपलब्ध चैत्य परिपाटियोंमें से धर्मसिंह और लालखुशालकी कृतिए सं० १७५६ के लगभगकी हैं एवं सं० १७६५ की बनी हुई बीकानेर गजलमें भी इन आठ मन्दिरोंका ही उल्लेख है। सं० १८०१ में राजनगरमें रचित जयसागर कृत तीर्थमाला स्तवन में "आठ चैत्ये बीकानेरे” उल्लेख है। अतः सं० १८०१ तक ये आठ मन्दिर ही थे इसके अनन्तर कविवर रघुपति रचित श्री शान्तिनाथ स्तवन में है। मन्दिर शान्तिनाथजीका (जो चिन्तामणिजीके गढ में हैं) सं० १८१७ मार्गशीष कृष्णा ५ के दिन पारख जगरूप के द्वारा बनवाकर प्रतिष्ठित होनेका उल्लेख है। अर्थात् लगभग १५० वर्ष तक बीकानेरमें उपर्युक्त ८ चैत्य ही रहे। इसके बाद १६ वीं शतीमें बहुत से मन्दिरोंका निर्माण एवं श्री अजितनाथजी (सं० १८५५) और गौड़ी पार्श्वनाथजी (सं० १८८६) के मन्दिरका जीर्णोद्धार हुआ। में श्री जिनभद्रसूरि पट्टधर श्रीजिनचन्द्रसूरिसे प्रतिष्ठा करवाई संभवतः यह प्रतिमा के बीकानेरमें आते समय साथ लाए और दर्शन पूजन करते थे। श्री महावीरजी (बैदों) के मन्दिरमें एक धातु प्रतिमा सं० १५५५ में विक्रमपुरमें देवगुप्तसूरि प्रतिष्ठित विद्यमान है। बीकानेर में हुई प्रतिष्ठाओंमें यह उल्लेख सर्व प्रथम है।
"Aho Shrut Gyanam"