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[ १४ । विशेष प्रकाश नहीं डाला जा सका। कंवला गच्छ और पायचन्द गच्छके श्रीपूज्यादि से राजाओंके सम्बन्धके विषय में भी हमें कोई सामग्री नहीं मिली अतः अब केवल लौका गच्छकी पट्टावली में उनके आचार्यों के साथ राजाओं के सम्बन्ध की जो बातें लिखी है, वे संक्षेप से लिखते हैं :--
नागौरी लुका गच्छके स्थापक आचार्य हीरागररूपजी सं० १५८६ में सर्व प्रथम बीकानेर आये। चोरडिया श्रीचन्दजी की कोटड़ीमें वे ठहरे। इसके पश्चात इस गच्छका यहाँ प्रभाव जमने लगा। आचार्य सदारंगजीसे महाराजा अनूपसिंह मिले थे। औरङ्गाबाद के मार्गवत्ती बोर प्राममें मिलने पर महाराजा को सन्तति विषयक चिन्ता देख कर इन्होंने कहा था कि आपके ५ कुंवर होंगे, उनमें दो बड़े प्रतापी होंगे। महाराजा अनूपसिंहजीने अपने कुंवरोंकी जन्मपत्री के सम्बन्धमें सं० १७५३ में खास रुक्का भेज कर पुछवाया। और महाराजाकी मृत्युके सम्बन्धमें पूछने पर इन्होंने सं० १७५५ के ज्येष्ठ सुदि ६ को देहपात होनेका पहिले से ही कह दिया था। सं० १७५५ में सुजाणसिंहजी को २४ महीने में बीकानेर का राजा होनेका कहा था और वैसा ही होने पर इनका राज्य में प्रभाव बढने लगा। महाराजाने इनके प्रवेशके समय राज : प्रधान मन्दिर लक्ष्मीनारायणजी से संख भेजा था। इनके पट्टधर जीवणदासजीने सं० १७७८ में महाराजा से अपने दोनों उपाश्रयका परवाना प्राप्त किया। सं० १७८४ के आसपास महाराजा सुजाणसिंहजी के रसोली हो गई थी, औषधोपचार से ठीक न होने पर श्रीपूज्यजी भटनेरसे बुलाए गए और उन्होंने मंत्रित भस्म दी जिससे वे रोगमुक्त हो गए। महाराजा रत्नसिंहजीने चांदीकी छड़ी व खास रुक्का भेज कर श्रीपूज्य लक्ष्मीचन्दजी को बीकानेर बुलाया। सं० १७६५-६७ में भी महाराजा श्रीपूज्यजीसे मिले और उन्हें खमासमण ( विशेष आमन्त्रपूर्वक आहार बहराना ) दिया।
बीकानेरमें ओसवाल जातिके गोत्र एवं घरोंकी संख्या बीकानेर बसनेके साथ-साथ ओसवाल समाजकी यहाँ अभिवृद्धि होने लगी। वच्छावतों की ख्यातके अनुसार पहले जहां जिसे अनुकूलता हुई, बस गये और मंत्रीश्वर कर्मचन्द्रके समय के पूर्व यहां की आबादी अच्छे परिमाणमें होगई थी इससे उन्होंने अपनी दूरदर्शिता से शहरको व्यवस्थित रूपमें बसानेका विचार किया फलतः मंत्रीश्वरने नवीन विकास योजनाके अनुसार प्रत्येक जाति और गोत्रोंके घरोंको एक जगह पर बसाकर उनकी एक गुषाड़ प्रसिद्ध कर दी। इस प्रकारको व्यवस्था में ओसवाल समाज २७ गवाड़ोंमें विभक्त हुआ जिनमें से १३ गुवाड़ें खरतर गच्छ एवं प्रधान मन्दिर श्रीचिन्तामणिजी को और १४ गुवाड़ें उपकेश (कंवला) गच्छ और प्रधान मन्दिर श्रीमहावीरजी को मान्य करती थी इन २७ गुवाड़ोंमें पीछेसे गोत्रों आदि का काफी परिवर्तन हुआ और एक-एक गुवाड़में दूसरे भी कई गोत्र बसने लग गये जिनका कुछ आभास लगभग ५०-६० वर्ष पूर्वकी लिखित हमारे संप्रहस्थ १३-१४ गुवाड़के (मामलों की ) बिगत ( वही ) से होता है उसकी नकल यहां दी जा रही है।
"Aho Shrut Gyanam"