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________________ [ १३ ] करासी वा गांवमें करासी तारै श्री दरबार रोहुकम छै फेलं सुंअरज करावण रो काम नहीं मास १ रु०१) चनण केसर धूप दीप रो दीया जासी जिके दिन सु मिंदर कराया जिके दिन सुं लेखो कर दिराय देसी और बड़े उपासरे री सीरणी री मरजाद बांध दीवी छ। सो राज रो दोसवारी वा० लणायत सुं डरनो वा और गुनह वालो मुसदी सहुकार और दी कोई दुजो उपासरै शरणै जाय बेठसी तेने श्री दरबार सुं वा० लगायत न उठासी। उठासी तेनै दरबार सिजा देसी और श्री बीकानेर रौ वसीवात सहकार वा० दुजी पटवां श्रीपूज कीया है ते नै न मानसी जो कोई मानसी तारा श्री दरबार और किसी ने बी मानणौ पूरो साबित हुय जासी तो वानै सिजा दी जांसी इये मरजाद मेटण री कोई चाकर अरज करसी तो परम हरामखोर हुसी इयमें कसर नहीं पड़सी म्हारो वचन छै। द० मुंहतो लीलाधर सं० १८६७ मीती माघ सुद १३ ! महाराजा सूरतसिंहजी और रत्नसिंहजी अनेक वार श्रीमद् ज्ञानसारजी के पास आया करते थे। सं० १८८६ के पत्रमें महाराजा रत्नसिंहजीने श्री पूज्यजीको लिखा है। "थे म्हांहरा शुभचिंतक छौ। पीढियां सुं लगाय थां सवाय और न छै।" महाराजा सूरतसिंहजीका जीवराजजीको दिया हुआ खास रुक्का हमारे संग्रहमें है। उन्होंने अमृतसुन्दरजी को उपाश्रय के लिए जमीन और विद्याहेमजी को उपाश्रय बनवाकर दिया था, जिनके शिलालेख यथास्थान छपे हैं। यति वसतचन्दजी को महाराजा के रोगोपशांति के उपलक्षमें प्रतिदिन ।।) आठ आना देनेका ताम्रपत्र बड़े उपाश्रय के ज्ञानभंडार में है। महाराजा दादासाहब के परम भक्त थे। उन्होंने नाल ग्राममें दादासाहब की पूजाके लिए ७५० बीघा जमीन दान की थी जिसका ताम्रशासन बड़े उपाश्रयमें विद्यमान है। महाराजा सरदारसिंहजी गौड़ी पार्श्वनाथजी में नवपद मंडलके दर्शनार्थ स्वयं पधारे और ५०) रुपया प्रति वर्ष देनेका फरमाया जिसका उल्लेख मन्दिरोंके प्रकरणमें किया जायगा। जैन मन्दिरों की पूजाके लिए राजकी ओरसे जो सहायता मिलती है उसका उल्लेख भी आगे किया जायगा। ___ महाराजा सरदारसिंहजीका भी जैनाचार्यों के साथ सम्बन्ध चालू था। उनके दिया हुआ एक पत्र श्रीपूज्यजीके पास है। महाराजा डूंगरसिंहजी ने मुनिराज सुगनजी महाराजके उपदेश' से शिवबाड़ीके जैन मन्दिरका निर्माण करवाया था। महाराजा गंगासिंहजीने जुबिलीके उपलक्ष में श्री चिन्तामणिजी और श्री महावीरजीमें चाँदीके कल्पवृक्ष बनवाकर भेंट किये थे। खरतर गच्छके श्रीपूज्योंको राजकी ओर से समय-समय पर हाथी, घोड़ा, पालकी, वाजिनादि, लवाजमा तथा उदरामसर, नाल, आदि जानेके लिए रथ भेजा जाता है। श्रीपूज्यजीकी गद्दी नशीनीके समय महाराजा स्वयं अपने हाथसे दुशाला भेट करते रहे हैं। खरतर गच्छकी वृहद् भट्टारक शाखाके श्रीपूज्योंका बीकानेर महाराजाओं से सम्बन्ध पर ऊपर विचार किया गया है। खरतर गच्छकी आचार्य शाखाके श्रीपूज्यों एवं यतियोंकी भी राज्यमें मान मर्यादा और अच्छी प्रतिष्ठा थी पर इस विषयकी सामग्री प्राप्त न होनेके कारण १-आपके सम्बन्धमें हमारी सम्पादित ज्ञानसार ग्रंथावली" में विशेष देखना चाहिए। "Aho Shrut Gyanam
SR No.009684
Book TitleBikaner Jain Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherNahta Brothers Calcutta
Publication Year
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size22 MB
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