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________________ [ १२ ] प्रदर्शित किया जिसका श्रीमद् स्वयं अपने पत्र में जो कि जेसलमेरमे मुंहता जोरावरमलको दिया गया था-इस प्रकार लिखते हैं श्री लालचन्दजी साहिबारे कथन सुं करनै म्हारौ पिण मनसोबो हुतो जेसलमेर रो आदेश इणे पिण सर्वतरै सुं करनै जेसलमेर रो ठहिरायो इणां रो कहण सुंम्हें पिण उठेहीज आवणो ठहरायो। राजाधिराज काती बदि १ रे दिन को० भीमराज हस्तू मने इसो फुरमायो. एक हूं तें कनै वस्तु मांगसुं सो जरूर मनै देणी पड़सी ! मैं आ कई मैं कांगै खनै आप कंइ मांगसी पछै काती सुदि १० रे दिन हजूर पधार्या खड़ा रहि गया विराजै नहीं जदमैं अरज कीनी महाराज विराजे क्यु नहीं जद फरमायो हुं मामू सो मनै दै तो वैसुं। जद मैं अरज करी साहिब फुरमावो सो हाजर जद फरमायो तूं अठै सुं विहार रा परणाम करै छै सो सर्वथा प्रकार विहार काई करण देवू नहीं। जद मैं अरज कीनी हूं तो बीकानेर इणहीज कारण आयौ छौ सो मने बीस वरस उपरंत अठै हुय गया सो म्हारी चिट्ठी आज ताई कोई नीकली नहीं जद फरमायो म्हारो इ पुण्य छ । जिण सु म्हारा विहारा रा परणाम हुवा है सो एकबार फलोधी जासु सो मैं आठबार अरज करी परं न मानी उपरंत मैं कह्यौ साहिबारी सीख बिना कोई जावू नहीं जद विराज्या । पर्छ ओर बातां घड़ी ४ ताई बतलाई उठतां खड़ा रहि गया फेर फुरमायौ जो फेर बैठ जाऊं जद मैं अरज कीनी साहिबां री सीख बिना कोई जाऊ नहीं। पछै आप पधार्या । सो माहरौ दाणौ पाणी बलवान छै तो एकबार तो इण वात नै फेर उथेलेसु पछै जिसौ दाणौ पाणी इति तत्त्वम्" इस पत्रसे स्पष्ट है कि महाराजाके आग्रहसे श्रीमद् बीकानेरमें ही रुक गये थे। इस पत्रके लगभग ८ वर्ष पश्चात् श्रीमद्का स्वर्गवास हुआ था। श्रीजिनहर्षसूरिजीके पट्टधर श्रीजिनसौभाग्यसूरिजीको महाराजा रतनसिंहजीने ही पाट बैठाया था, व जयपुर गादीके श्रीजिनमहेन्द्रसूरिजी से गच्छभेद होने पर आप श्रीजिनसौभाग्यसूरिजीके पक्षमें रहे थे। इन्होंने बड़ी दृढ़ताके साथ अपने पक्षको प्रबल कर श्रीपूज्यजीके मान-महत्त्वको बढ़ाया। महाराजाके एक परवानेकी नकल यहाँ दी जाती है। छाप श्री रामजी "श्री दीवाण वचनात् बड़े उपासरै रे श्रीपूजजी श्री श्री १०८ श्री सौभाग्यसूरजीने गुरु पदवी देय दीवी छै सु बड़े उपासरै री पीढी सुं मरजाद रा परवाणा वा छाप रा कागद सीव रा वा सामग्री रा धरणे रा कर दिया छै तिके परवाणा मुजब सही छै और नया मरजाद मों बांध दीवी छै बडै उपासर री साध साधवीमें चूक पड़ जावै उण रो दुसमण मा सु अरज करै ते सुणे नहीं श्रीपूज्यजी उवा ने दण्ड प्रायश्चित देर सुध कर लेसी कदास श्रीपूजजी री इग्या नहीं मानसी आप मुराद वेसता फेर उवा नै परस्पर समझासी समभयां लागसी नहीं तो उव दरबार सुं अरज करासी औ साध साधवी म्हारी इग्या में नहीं चालै छै आप मुराद वेवै छै तारा दरबार सुं वान वठाय सिजा देसी तार वा श्रीपूजजी नै कवासी अम आपरी इग्या ओलंगा नहीं बोलंगा तो जिन इग्या रो लोपी हुवा तारा अरज कर छोडासी और साध साध्वी सहरमें भगवान रो मींदर "Aho Shrut.Gyanam"
SR No.009684
Book TitleBikaner Jain Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherNahta Brothers Calcutta
Publication Year
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size22 MB
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