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________________ [ ११ ] श्री लक्ष्मीनारायणजी भगत राजराजेश्वर महाराजा शिरोमण | माहाराजाधिराज माहाराज कुंवार श्रीराज सिंहजीस्य मुद्रा ! श्रीरामजी ॥ स्वस्ति श्री जंगम जुगप्रधान भट्टारक श्री जिणचन्दसूरिजी सूरेश्वरान् महाराजाधिराजा म्हाराज म्हाराज कुंवार श्री राजसिंघजी लिखावतुं निमस्कार वाँचजो अठारा समाचार श्री जीरे तेज प्रताप कर भला छै थांहरा सदा भला चाहीजै अप्रंच थे म्हारे पूज्य छौ थां सिवाय और कोई बात न छै सदा म्हांसूं कृपा राखौ छौ जिणसुं विशेष रखाजो और थे चौमासो ऊतरियां सताब बीकानेर आवो म्हानुं धांसुं मिलणरी चाहा है अठारी हकीकत सारी गुरजी तेजमाल नाइटै मनसुख रे कागद सुं जाणजो सं० १८४० रौ मिती काती बद १ मुकाम गांव देणोक ऽ ऽ - १ जंगेम जुगे प्रध....... जिणचन्दसूरजी सूरेश्वरान् । महाराजा सूरतसिंह जैनाचार्यों व साधु-यतियोंके परम भक्त थे। श्रीमद् ज्ञानसारजी को तो आप नारायण - परमात्माका अवतार ही मानते थे । उनको दिये हुए आपके स्वयं लिखित पत्रों में से २० खास रुक्के हमारे संग्रह में हैं, जिनमें श्रीमद् के प्रति महाराजाकी असीम भक्ति पद पद पर लक रही है पाठकोंकी जानकारीके लिए दो एक पत्रोंका अवश्यक अंश यहां उद्धृत किया जाता है "स्ति सर्व ओपमा विराजमान बाबैजी श्री श्री श्री श्री श्री १०८ श्री नारायण देवजी सुं सेवग सूरतसिंहरी कोड़ एक दण्डोत नमोनारायण वन्दणा मालुम हुवै अप्रंच कृपापत्र आपरौ आ वांचियां सुं बड़ी खुशवखती हुई आपरे पाये लागां दरसण कियां रौ सौ आणंद हुवो आपरी आज्ञा माफक मनसा वाचा कर्मणा कर कही बातमें कसर न पड़सी आपरी इग्या माफ (क) सारी बात से आनंद खुसी छै । नारायण री आग्यामें फेर सन्देह करसी तौ बाबाजी ऊतो नारायण रे घर से चोर हराम हुसी जैरो अठे उठे दोर्या लोकां बुरो हुसी वैनै पछै त्रिलोकीमें ठौर न छै आपरो सेवग जाण सदा कृपा महरवानी फुरमावै छै जैसुं विशेष कुरमावणरो हुकम हुसी दूजी अरज सारी धरमैनुं कही है सु मालुम करसी सं० १८७० मिती मिगसर सुदि १” "आपरो दरसण करसुं पाए लागसुं ऊ दिन परम आणदरो नारायण करसी" "आप इतरै पहला कठै पधारसी नहीं आ अरज है। दूजी तरह तौ सारा मालम छ सेनगटावर तो सरम नाराय (ण) नुं वा आपनुं छे हूंतो आपथकां निचित छु" “आप उबारियां हमें बरसुं" महाराजा सूरतसिंहजी की भांति उनके पुत्र महाराजा रतनसिंहजी जैनाचार्यों व यतियोंके परम भक्त थे। एक बार ज्ञानसारजी महाराज जेसलमेर के महारावलजीके बार-बार आग्रह करने पर वहां जानेका विचार करते थे तब महाराजाने उन्हें रोकनेके लिए कितना भक्तिभाव "Aho Shrut Gyanam"
SR No.009684
Book TitleBikaner Jain Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherNahta Brothers Calcutta
Publication Year
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size22 MB
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