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________________ इस संग्रह में १२००० ग्रंथ एवं ५०० के लगभग गुटके हैं तथा अनेक महत्त्वपूर्ण चित्र हैं। स्वनामधन्य बीकाजी के वर्तमान उत्तराधिकारी से हम इतना निवेदन करना चाहेंगे कि उनके पूर्वजों की यह ग्रन्थराशि भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है। संपूर्ण राष्ट्रको और विशेषतः समस्त राजस्थानी प्रजा को इस निधिमें रुचि है। यह उनके पूर्वजोंका साहित्य और कला भाण्डार है, अतएव उदार दृष्टिकोण से जनताके लिए इसकी सुरक्षा का प्रबन्ध होना चाहिए । इस संबन्धमें भारतीय शासन से भी निवेदन है कि वे वर्तमान उपेक्षावृत्तिको छोड़कर इस ग्रंथ संग्रह की रक्षा के लिये पर्याप्त धन की व्यवस्था करें जिससे ग्रंथोंका प्रकाशन भी आगे हो सके और योग्य पुस्तकपाल की देख-रेख में ग्रन्थों की रक्षा भी हो सके। विद्वान् लेखकोंने जैन ज्ञान-भाण्डारोंका परिचय देते हुए भूमिका रूपमें श्वेताम्बर और दिगम्बर ज्ञानभाण्डारों की उपयोगी सूची दी है। हमारा ध्यान विशेष रूपसे संवत् १५७१ और संवत् १९७८ के बीच में निर्मित हिन्दीके अनेक रास और चौपाई ग्रन्थों की ओर जाता है, जिनकी संख्या ५० के लगभग है। हिन्दी साहित्य की यह सब अप्रकाशित सामग्री है। संवत् १६०२ की मृगावती चौपाई और सीता चौपाई ध्यान देने योग्य हैं। ___ श्री नाहटाजी ने इस सुन्दर ग्रंथ में ऐतिहासिक ज्ञान संवर्द्धनके साथ-साथ अत्यन्त सुरभित सांस्कृतिक वातावरण प्रस्तुत किया है, जिसके आमोदसे सहृदय पाठकका मन कुछ काल के लिये प्रसन्नतासे भर जाता है । सचित्र विज्ञप्तिपत्रोंका उल्लेख करते हुए १८६८ के एक विशिष्ट विज्ञप्ति पत्रका वर्णन किया गया है, जो बीकानेर के जैन संघ की ओर से अजीमगंज बंगाल में विराजित जैनाचार्य की सेवामें भेजने के लिये लिखा गया था। इसकी लम्बाई १७ फुट है, जिसमें ५५ फुट में बीकानेरके मुख्य बाजार और दर्शनीय स्थानोंका वास्तविक और कलापूर्ण चित्रण है । लेखकोंने इन सब स्थानों की पहचान दी है। इसी प्रकार पल्लू से प्राप्त सरस्वती देवी की प्राचीन प्रतिमा का भी बहुत समृद्ध काव्यमय वर्णन लेखकोंने किया है। सरस्वती की यह प्रतिमा राजस्थानीय शिल्पकला की मुकुटमणि है, वह इस समय दिल्लीके राष्ट्रीय संग्रहालय में सुरक्षित है! इस मूर्तिमें जिन आभूषणोंका अंकन है उनका वास्तविक वर्णन सोमेश्वरकृत मानसोल्लास में आया है। सरस्वतीके हाथोंकी अंगुलियों के नख नुकीले और बढ़े हुए हैं, जो उस समय सुन्दरता का लक्षण समझा जाता था। मानसोल्लास में इस लक्षणको 'केतकीनख कहा गया है।३११६२)। इस पुस्तक में जिस धार्मिक और साहित्यिक संस्कृतिका उल्लेख हुआ है, उसके निर्माण कर्ताओंमें ओसवाल जातिका प्रमुख हाथ था। उन्होंने ही अपने हृदय की श्रद्धा और द्रव्य राशि से इस संस्कृतिका समृद्ध रूप संपादित किया था। यह जाति राजस्थान की बहुत ही धमपरायण और मितव्ययी जाति थी, किन्तु सांस्कृतिक और सार्वजनिक कार्यों में वह अपने धनका सदुपयोग मुक्तहस्त होकर करती थी। बीकानेर में ओसवालों के किसी समय ७८ गोत्र थे, जिनमें ३००० परिवारों की गणना थी। आरम्भ में ये परिवार अपने मन से बस "Aho Shrut Gyanam"
SR No.009684
Book TitleBikaner Jain Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherNahta Brothers Calcutta
Publication Year
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size22 MB
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