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________________ वर्तमान लक्षण शिल्प प्रन्थों के किस त्रैलोक्यप्रासाद के साथ ठीक ठीक घटते हैं। भांडासरजी के मंदिर की जगती में बनी हुई वाद्ययन्त्रधारिणी पुत्तलिकाएँ विभिन्न नाट्य मुद्राओं में अति सुन्दर बनी हैं। बीकानेर अपने सहयोगी नगरों में 'आठ चैत्ये बीकानेरे' इस विरुद से प्रसिद्ध हुआ, मानो नगर की अधिष्ठात्री देवता के लिए इस प्रकार की कीर्ति संपादित करके बीकानेर के श्रीमन्त श्रेष्ठियों ने नगर देवता के प्रति अपने कर्तव्य का उचित पालन किया था। उसके बाद और भी छोटे मोटे मन्दिर वहाँ बनते रहे, जिनका नाम परिचय प्रस्तुत ग्रन्थमें दिया गया है । यथार्थ में बीकानेर के नागरिकों के कर्तव्य पालन का यह आरम्भ ही है। जिस दिन हम अपने नगरों के प्रति पर्याप्त रूप में जागरूक होंगे, और उनके सांस्कृतिक उत्तराधिकार के महत्त्व को पहचानेंगे, उस दिन इन देव-प्रसादों के सचित्र वर्णन और वास्तुशैली और कोरणी के सूक्ष्म अध्ययन से संयुक्त परिचय प्रन्थों का निर्माण किया जायगा। पर उस दिन के लिये अभी प्रतीक्षा करनी होगी। प्रासाद-निर्माताओंका स्वर्णयुग तो समाप्त हो गया, पर वास्तु और शिल्प के सच्चे अनुरागी और पारखी उनके उत्तराधिकारियोंने अभी जन्म नहीं लिया। पाश्चात्य शिक्षा की लपटोंने जिनके सांस्कृतिक मानसको झलसा डाला है, ऐसे विद्र प प्राणी हम इस समय बच रहे हैं। कला के अमृत जल से प्रोक्षित होकर हमारे सांस्कृतिक जीवन का नवावतार जिस दिन सत्य सिद्ध होगा, उसी दिन इन प्राचीन देव प्रासादों के मध्य में हम सन्तुलित स्थिति प्राप्त कर सकेंगे। लेखकों ने बीकानेर नगर के १३ अन्य मन्दिर एवं राज्य के विभिन्न स्थानों में निर्मित लगभग ५० अन्य जैन मन्दिरों का भी उल्लेख किया है। उनके वास्तु-शिल्प का भी विस्तृत अध्ययन उसी प्रकार अपेक्षित है। इनमें सुजानगढ़ में बना हुआ जगवल्लभ पार्श्वनाथका देवसागर प्रासाद उल्लेखनीय है जिसकी प्रतिष्ठा अभी चालीस पचास वर्ष पूर्व सं० १६७१ में हुई थी और जिसका निर्माण साढ़े चार लाख रुपये की लागत से हुआ था। भांडासर के त्रैलोक्यदीपक प्रासाद की भांति यह भी वास्तु प्रासाद का सविशेष उदाहरण है। मन्दिरों की तरह जैन उपाश्रय भी सांस्कृतिक जीवन के केन्द्र थे। इनमें तपस्वी और ज्ञान-साधक यति एवं प्राचार्य निवास करते थे। आज तो इस संस्था का मेरुदण्ड भुक गया है। बीकानेर का बड़ा उपाश्रय जहां बड़े भट्टारकों की गद्दी है, विशेष ध्यान देने योग्य है, क्योंकि वर्तमान में इसके अन्तर्गत बृहत् ज्ञानभण्डार नामक हस्तलिखित ग्रन्थों का संग्रह है, जिसमें हितवल्लभ नामके एक यतिने अपनी प्रेरणा से नौ यतियोंके हस्तलिखित ग्रन्थोंका ( संवत् १६५८ में ) एकत्र संग्रह करा दिया था। इस संग्रह में १०००० ग्रन्थ हैं, जिनका विशेष विवरण युक्त सूचीपत्र श्री नाहटाजी ने स्वयं तैयार किया है। अवश्य ही वह सूचीप्रन्थ मुद्रित होने योग्य है। इसी प्रसंगमें बीकानेर की अनूप संस्कृत लायब्ररी की ओर भी ध्यान जाता है, जो संघ प्रवेश से पूर्व बीकानेर का राजकीय पुस्तकालय था, किन्तु अब महाराज श्रीके निजी स्वत्त्व में है। "Aho Shrut Gyanam"
SR No.009684
Book TitleBikaner Jain Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherNahta Brothers Calcutta
Publication Year
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size22 MB
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