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________________ इन मूर्तियों की सहायता से लगभग पांच शती की कला शैली का साक्षात् परिचय प्राप्त हो सकता है। इस दृष्टिसे इनका पृथक् अध्ययन और सचित्र प्रकाशन आवश्यक है। विक्रम की सोलहवीं शती में चार बड़े मन्दिर बीकानेर में बने और फिर चार सत्रहवीं शती में। इस प्रकार संवत् १५६१ से संवत् १६७० तक सौ वर्ष के बीच में आठ बड़े देवालयों का निर्माण भक्त श्रेष्ठियों द्वारा इस नगर में किया गया। उस समय तक देश में मन्दिरों का वास्तु-शिल्प जीवित अवस्था में था! जगती, मंडोवर और शिखर के सूक्ष्म भेद और उपभेद शिल्पियों को भलीभांति ज्ञात थे। जनता भी उनसे परिचित रहती थी और उनके वास्तु का रस लेने की क्षमता रखती थी। आज तो जैसे मन्दिरों का अस्तित्व हमारी आँख से एकदम ओझल हो गया है। उनके वास्तु की जानकारी जैसे हमने बिलकुल खो दी है। भद्र, अनुग, प्रतिरथ, प्रतिकर्ण, कोण, इनमें से प्रत्येक की स्थिति, विस्तार निर्गम और उत्सेध या उदय के किसी समय निश्चित नियम थे। भद्रार्ध और अनुग और कोण के बीच में प्रासाद का स्वरूप और भी अधिक पल्लवित करने के लिये कोणिकाओं के निर्गम बनाए जाते थे, जिन्हें पल्लविका या नन्दिका कहते थे । इन कई भागों के उठान के अनुसार ही ऊपर चलकर शिखरमें रथिका और शृङ्ग एवं उरु शृङ्ग बनाते थे, तथा प्रतिकर्ण और कोण के शिखर भागों को सजाने के लिये कितने ही प्रकार के अण्डक, तिलक और कूट बनाए जाते थे ! अण्डकों की संख्या ५ से लेकर ४-४ के क्रम से बढ़ती हुई १०१ तक पहुंचती थी। इनमें पांच अंडकवाला प्रासाद केसरी और अन्तिम १०१ अंडकों का प्रासाद देवालयों का राजा मेरु कहलाता था। एक सहस्र अण्डकों से सुशोभित शिखरवाले प्रासाद भी बनाए जाते थे। इस प्रकार के १५० से अधिक प्रासादों के नाम और लक्षण शिल्प-ग्रन्थों में प्राप्त होते हैं। ऐसे प्रासाद जीवन के वास्तविक तथ्य के अंग थे, शिल्पियों की कल्पना नहीं। अतएव यह देखकर प्रसन्नता होती है कि भांडाशाह द्वारा निर्मित सुमतिनाथ के मन्दिर में संवत् १५७१ विक्रमी के लेख में उसे त्रैलोक्यदीपक प्रासाद कहा गया है, जिसका निर्माण सूत्रधार गोदा ने किया था १ संवत् १५७१ वर्षे आसो २ सुदि २ रवौ राजाधिराज ३ श्री लूणकरणजी विजय राज्ये ४ साहभांडा प्रासाद नाम त्रैलो५ क्यदीपक करावितं सूत्र० ६ गोदा कारित शिल्परत्नाकर में त्रैलोक्यतिलक, त्रैलोक्यभूषण और त्रैलोक्यविजय तीन प्रकार के विभिन्न प्रासादों के नाम और लक्षण दिये हुए हैं। इनमें से त्रैलोक्यतिलक प्रासाद में शिस्लर के चारों ओर ४२५ अंडक और सन अंडकों के साथ २४ तिलक बनाए जाते थे। वास्तुशास्त्र की दृष्टि से यह बात छान बीन करने योग्य है कि सूत्रधार गोदा के त्रैलोक्यदीपक प्रासाद के "Aho Shrut.Gyanam"
SR No.009684
Book TitleBikaner Jain Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherNahta Brothers Calcutta
Publication Year
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size22 MB
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