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________________ [२] । किया जाता था, कुछ उसी प्रकार का प्रयत्न 'बीकानेर जैन लेख संग्रह' नामक प्रस्तुत ग्रन्थ में नाइटाजी ने किया है । समस्त राजस्थान में फैली हुई देव-प्रतिमाओंके लगभग तीन सहस्र लेख एकत्र करके विद्वान् लेखकों ने भारतीय इतिहास के स्वर्णकणों का सुन्दर चयन किया है। यह देखकर आश्चर्य होता है कि मध्यकालीन परम्परा में विकसित भारतीय नगरों में उस संस्कृति का कितना अधिक उत्तराधिकार अभीतक सुरक्षित रह गया है। उस सामग्री का उचित संग्रह और अध्ययन करनेवाले पारखी कार्यकर्ताओं की आवश्यकता है। अकेले बीकानेर के ज्ञानभण्डारों में लगभग पचास सहस्र हस्तलिखित प्रतियों के संग्रह विद्यमान हैं। यह साहित्य राष्ट्रकी सम्पत्ति है। इसकी नियमित सूची और प्रकाशन की व्यवस्था करना समाज और शासन का कर्तव्य है। बीकानेर के समान ही जोधपुर, जैसलमेर, जयपुर, उदयपुर, कोटा, बूंदी, आदि बड़े नगरों की सांस्कृतिक छानबीन की जाय तो उन स्थानोंसे भी इसी प्रकार की सामग्री मिलने की सम्भावना है। प्रस्तुत संग्रह के लेखोंसे जो ऐतिहासिक और सांस्कृतिक सामग्री प्राप्त होती है, उसका अत्यन्त प्रामाणिक और विस्तृत विवेचन विद्वान लेखकों ने अपनी भूमिका में किया है। उत्तरी राजस्थान और उससे मिला हुआ जांगल प्रदेश प्राचीनकाल में साल्व जनपद के अन्तर्गत था सरस्वती नदी वहां तक उस समय प्रवाहित थी । पुरातत्त्व विभाग द्वारा नदी तटोंपर दूर तक फैले हुए प्राचीन टीलोंके अवशेष पाए गए हैं। किन्तु मध्यकालीन इतिहास का पहला सूत्र संवत् १५४५ से आरम्भ होता है, जब जोधपुर नरेश के पुत्र बीकाजी ने जोधपुर से आकर बीकानेर की नींव डाली। कई लेखों में बीकानेर को बिक्रमपुर कहा गया है, जो उसके अपभ्रंश नामका संस्कृत रूप है। बीकानेर का राजवंश आरंभ से ही कला और साहित्य को प्रोत्साहन देनेवाला हुआ, फिर भी बीकानेर के सांस्कृतिक जीवन की सविशेष उन्नति मन्त्रीश्वर कर्मचन्द ने की। नगर की स्थापना के साथ ही वहाँ वैभवशाली मन्दिरों का निर्माण आरंभ हो गया । सर्व प्रथम आदिनाथ के चतुर्विंशति जिनालय की प्रतिष्ठा संवत् १५६१ में हुई। यह बड़ा देवालय इस समय चिन्तामणि मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध है। यह विचित्र है कि इस मन्दिर में स्थापना के लिए मूलनायक की जो प्रतिमा चुनी गई वह लगभग पौने दो सौ वर्ष पूर्व संवत् १३८० में स्थापित मन्डोवर से लाई गई थी। इस मन्दिर की दूसरी विशेषता यहांका भूमिगृह है, जिसमें लगभग एक सहस्र से ऊपर धातुमूर्तियां अभी तक सुरक्षित हैं । ये मूर्तियां सिरोही के देवालयों की लूट में अकबर के किसी सेनानायक प्राप्त कर बादशाह के पास आगरे भेज दी थीं। वहां से मन्त्रीश्वर कर्मचन्दने बीकानेर नरेश द्वारा संवत् १६३६ में सम्राट् अकबर से इन्हें प्राप्त किया और इस मन्दिर में सुरक्षित रख दिया। श्रीनाहटाजीने सं० २००० में इनके लेखों की प्रतिलिपि बनाई थी जो इस संग्रह में पहली प्रकाशित की गई है ( लेख संख्या ५६-११५४ ।) इनमें सबसे पुराना लेख -- संवत् १०२० का है और उसके बाद प्रायः प्रत्येक दशाब्दी के लिये लेखों का लगातार सिलसिला पाया जाता है। भारतीय धातुमूर्तियों के इतिहास में इस प्रकार की क्रमबद्ध प्रामाणिक सामग्री अन्यत्र दुर्लभ है। "Aho Shrut Gyanam"
SR No.009684
Book TitleBikaner Jain Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherNahta Brothers Calcutta
Publication Year
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size22 MB
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