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________________ गए थे। कहा जाता है कि पीछे मन्त्रीश्वर कर्मचन्द्र ने प्रत्येक जाति और गोत्रों के घरों को एक जगह बसा कर उनकी एक-एक गुवाड़ प्रसिद्ध कर दी। गुवाड़ का अर्थ मुहल्ला है। यह शब्द संस्कृत गोवाट से बना है, जिसका अर्थ था गायोंका बाड़ा। इस शब्दसे संकेत मिलता है कि प्रत्येक मुहल्ले की गाएँ एक-एक बाड़े में रहती थीं। प्रातःकाल ये गाएँ उसी बाड़े से जंगल में चरने के लिए चली जाती और फिर सायंकाल लौटकर वहीं खड़ी हो जाती थीं। गायों के स्वामी दुहने और खिलाने के लिए उन्हें अपने घर पर ले आते थे। पुराने समयमें गायों की संख्या अधिक होती थी और प्रायः उन्हें इसी प्रकार बाड़े में छुट्टा रखते थे। गोवाट, गुवाड़ शब्द की प्राचीनता के विषय में अभी और प्रमाण ढूँढ़ने की आवश्यकता है, किन्तु इस प्रथाके मूलमें वैदिक गोत्र जैसी व्यवस्था का संकेत मिलता है। गोत्रकी निरुक्ति के विषय में भी ऐसा ही मत है कि समान परिवारों की गायों को एक स्थान पर रखने या बांधने की प्रथा से इस शब्द का जन्म हुआ। बीकानेर में ओसवाल समाज की 27 गुवाड़ें थीं। यह जानकर कुतूहल होता है कि नगर में प्रत्येक जाति अपने अपने घरों की संख्या का पूरा लेखा जोखा रखती थी। सं० 1905 के एक बस्तीपत्रक में घरों की संख्या 2700 लिखी है। अपने यहाँ की समाज-व्यवस्था में इस प्रकार से परिवारों की गणना रखना जातिके सार्वजनिक संगठन के लिए आवश्यक था। प्रत्येक परिवारका प्रतिनिधि व्यक्ति वृद्ध या स्थविर कहलाता था, जिसे आजकल 'बड़ा बूढ़ा' कहते हैं / बिरादरी की पंचायत या जाति सभा में अथवा विवाह आदि अवसरों पर वही कुल वृद्ध या 'बड़ा बूढ़ा' उस परिवार का प्रतिनिधि बनकर बैठता था। इस प्रकार कुल या परिवार जाति की न्यूनतम इकाई थी। कुलोंके समूहसे जाति बनती थी / जातिका सामाजिक या राजनैतिक संगठन नितान्त प्रजातन्त्रीय प्रणाली पर आश्रित था! इसे प्राचीन परिभाषा में 'संघप्रणाली' कहा जाता था। पाणिनिने अष्टाध्यायीमें कुलोंकी इस व्यवस्था और उनके कुलवृद्धों के नामकरण की पद्धति का विशद उल्लेख किया है। व्यक्ति के लिये यह बात महत्त्वपूर्ण थी कि परिवार के कई पुरुष-सदस्यों में गोत्र-वृद्ध या 'बड़ा बूढा' यह उपाधि किस व्यक्ति विशेषके साथ लागू होती थी, क्योंकि वही उस कुलका प्रतिनिधि समझा जाता था। प्रति परिवार से एक प्रतिनिधि जातिकी पंचायत में सम्मिलित होता था ! जातिके इस संघ में प्रत्येक कुलवृद्धका पद बराबर था, केवल-कार्य निर्वाहके लिये कोई विशिष्ट व्यक्ति सभापति या श्रेष्ठ चुन लिया जाता था। बौद्ध ग्रंथोंसे ज्ञात होता है कि वैशालीके लिच्छवि क्षत्रियोंकी जातिमें 7707 कुल या परिवार थे। क्योंकि वे राजनीतिक अधिकार से संपन्न थे इस वारते प्रत्येककी उपाधि 'राजा' होती थी। वैश्यों या अन्य जातियों की बिरादरी के संगठनमें राजा की उपाधि तो न थी किन्तु और सब बातोंमें पंचायत या जातीय सभा का ढांचा शुद्ध संघ प्रणाली से संचालित होता था। इस प्रकार के जातीय संगठनमें प्रत्येक जाति आन्तरिक स्वराज्यका अनुभव करती थी और अपने निजी मामलोंको निपटाने में पूर्ण स्वतन्त्र थी। इस प्रकारके स्वायत्त संगठन समाजके अनेक स्तरों पर प्रत्येक जातिमें विद्यमान थे, और जहाँ वे टूट नहीं गए हैं "Aho Shrut Gyanam"
SR No.009684
Book TitleBikaner Jain Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherNahta Brothers Calcutta
Publication Year
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size22 MB
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