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शिला और प्रतिमा के लेखों की लिपि देवनागरी होती है । अक्षरों का आकार शास्त्रीय लिपि का होता है । परन्तु यह कहना पड़ेगा कि समय की गति के साथ लिपि की गति भी परिवर्तित होती रही है। अक्षरों का आकार उचरोचर परिमार्जित होता चला आया है। अधिकतम प्राचीन लेखों के अक्षरों का आकार इतना विचित्र होता है कि उनका पढ़ना उस पुरुष के लिये ही संभव और शक्य है कि जो प्राचीनतम् लेखों के पढ़ने का अभ्यासी हो । दो बातें जो खटकती हैं-- एक यह है कि ऐसे भी लेख हैं जिनकी रचना से यह पता नहीं लगता कि लेख को उत्कीर्ण करानेवाला तथा पुण्यकर्म करने करानेवाला व्यक्ति कौन है ? तथा उस लेख में वर्णित व्यक्तियों में से कौन उस दिन उपस्थित या जीवित था ? कोई एक सिद्धान्त स्थिर करके ही यह जाना १ जा सकता है ।
दूसरी बात यह है कि ऐसे भी लेख हैं जिनसे प्रतिष्ठा कहाँ हुई १ किस ग्राम के वासीने करवाई का पता चलना भी कठिन होता है । जैसे 'राजपुरे' अर्थात् प्रतिष्ठा राजपुर में हुई, परन्तु प्रतिष्ठा करानेवाले श्रेष्ठि राजपुर का था या अन्य ग्राम का ? प्रश्न रह जाता है । ऐसी स्थिति में वह श्रेष्ठि राजपुर का ही निवासी था मानना अधिक उपयुक्त एवं संगत होता है । इसी प्रकार राजपुर निवासीने प्रतिष्ठा करवाई का अर्थ 'राजपुर ' शब्द के अभाव में राजपुर में
"Aho Shrut Gyanam"