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[ ग ] कर देगा। जैनाश्रित कलाचार्यों ने यही किया है। समस्त जैनाश्रित शिल्पकृतियों पर दृष्टिपात करने से विदित होता है कि सभी प्रकार के उपादानों का उपयोग कलाकारों ने भावों के व्यक्तिकरण में सफलतापूर्वक किया है । प्राप्त प्रतिमाओं के आधार पर तो यही कहा जा सकता है कि सर्व प्रथम मूर्ति निर्माण में काष्ठ-प्रस्तरादि का उपयोग हुश्रा । पर काल परिवर्तनशील होता है । कलाकार भी सामयिक उपादानों की उपेक्षा नहीं कर सकता। गुप्तकाल में मूर्ति निर्माण विषयक कला उन्नति के शिखर पर थी। इस युग में धातु की ढली हुई मूर्तियाँ प्रचुर परिमाण में बनती थीं। इस युग में जैन मूर्तियाँ भी धातु की बना करती थीं। यद्यपि इस काल की जैनप्रतिमाएँ बहुत ही कम उपलब्ध होती हैं, पर जो भी हैं, वे तात्कालिक कला का प्रतिनिधित्व कर सकती है । गुप्तकालीन एक जैनधातुप्रतिमा सोनागिरि में थी, जो अब भारतकलाभवन में सुरक्षित है। मेरे विनम्र मतानुसार यही, उपलब्ध जैन धातुमूर्तियों में सर्व प्राचीन है। इसके बाद गुजरात की उन मूर्तियों का स्थान प्राता है जिन पर डा० हीरानन्द' शास्त्री, साराभाई। नवाब, डा० एच० डी० सांकलिया श्रादि विद्वान प्रकाश डाल चुके हैं । सातवीं शती तक की सलेख मूर्तियों में इन मूर्तियों का अपना स्वतंत्र स्थान है। प्राचीन धातुप्रतिमाओं की कला से ज्ञात होता है कि उन दिनों वे प्रायः अपरिकर ही बनती थीं। अति प्राचीन प्रस्तरोत्कीर्ण मूर्तियों के व्यापक भाव सूचक परिकर का प्रभाव उन पर नहीं है। लेख लिखने की पृथा भी व्यापक नहीं थी। इसी कारण मूर्ति का पृष्ठ भाग भी उतना साफ नहीं बनता था। परन्तु कला और सौन्दर्य की दृष्टि से इन प्रतिमाओं का महत्व सर्वोपरि है शरीर रचना, सौष्ठव और विन्यास कलाकार की दीर्घकालव्यापी साधना का परिचय देता है । मुखमण्डल पर शान्ति की आभा परिलक्षित होती है। इनकी प्रभावशाली रचना एवं कुछेक उपकरण तो जैनाश्रित मूर्तिकला में अभिमान की वस्तु है।
गुप्तकाल से १९ वीं शती की प्रतिमाओं को एक ही भाग में रखना उचित है । इस युग की जितनी भी धातुप्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं उनका १-रिपोर्ट ऑफ दि श्रार्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ बरोरा स्टेट, १६३७-८ । २-भारतीय विद्या वर्ष १, अं० २ ॥ ३-बुलेटिन ऑफ दि डेक्कन कॉलेज रिसर्च इन्स्टिट्यूट, १९४० मार्च ।
"Aho Shrut Gyanam"