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[ ख ] श्रमणसंस्कृति का क्रमबद्ध इतिहास आज हमारे सम्मुख नहीं है, परन्तु इस विषय के साधन ही हमारे यहां नहीं हैं, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता । कारण कि, पुरातन ग्रन्थभंडारों में और शिला व ताम्रपत्रों पर खुदी हुई लिपियों में इतिहास के तत्त्व भरे पड़े हैं । हमारी असावधानी या
औदासिन्य मनोवृत्ति के कारण बहुतसी सामग्री तो नष्ट हो चुकी और दैनन्दिन नष्ट होती ही जा रही है । समाज ने अपने ऐतिहासिक साधनों पर बहुत ही कम ध्यान दिया है । ऐसी महत्वपूर्ण ऐतिहासिक साधन सामग्री में प्रतिमालेखोंकी उपयोगिता सर्वविदित है। सम्पूर्ण भारतवर्ष में फैले हुए जिनमन्दिरों में ये साधन बिखरे पड़े हैं। इन्हीं में श्रमण-परम्परा का इतिहास छुपा हुआ है। ऐसी लेखयुक्त मूर्तियों को अध्ययन की सुविधा के लिए, हम दो भागों में विभाजित कर सकते हैं,-प्रस्तर मूर्ति और धातु मूर्ति । सापेक्षतः धातुमूर्तियाँ ही अधिक मिलती हैं। प्रस्तर प्रतिमाएँ भी सलेख रहती हैं, पर उनकी संख्या सैकड़ों की ही समझनी चाहिए । जब १० वीं शती के बाद की बहुत ही कम ऐसी धातु प्रतिमाएं मिलेंगी जो सलेखे न हो । अतः श्रमणों की परंपरा और जाति, कुलों, नगरों का इतिहास जानने के लिए धातुमूर्तियों पर खुदे हुए लेखों का गंभीर अध्ययन वांछनीय है। यद्यपि इस विषय पर प्रकाश डालने वाली सामग्री भिन्न-भिन्न विद्वानों द्वारा संग्रहीत हो पर्याप्त प्रकाश में आ चुकी है, परन्तु अभी भी बहुतसी सामग्री अंधकार के गर्भ में है। जब तक इस .प्रकार के सभी साधन हमारे सामने नहीं आ जाते तब तक स(गीय इतिहास की कल्पना संभव नहीं । धातुप्रतिमाओं के लेखों की चर्चा करने के पूर्व कलाकी दृष्टि से धातु मूर्तियों का क्रमिक विकास जान लेना श्रावश्यक है।
धातु मूर्तियाँ
अद्यावधि प्राप्त प्राचीन जैनप्रतिमाओं में प्रथम कोटि की प्रतिमा प्रस्तर की ही हैं । सर्व प्रथम कलाकारों ने भाव प्रकाशन के माध्यम स्वरूप प्रस्तर को ही उपयुक्त समझा था।
__ कलाकार प्रारमस्थ सौंदर्य को कल्पना के सम्मिश्रण से उपादान द्वारा रूप प्रदान करता है। इसमें उपादानों की अपेक्षा आन्तरिक भावों की ही प्रधानता रहती है। तात्पर्य कि किसी भी प्रकार के माध्यम द्वारा, यदि कलाकार में सौंदर्य-दर्शन एवं प्रदर्शन की उत्कृष्ट क्षमता है, तो वह व्यक्त
"Aho Shrut Gyanam"