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किंचित् प्रास्ताविक
श्रमणसंस्कृति--
भमएसंस्कृति का अतीत अत्यन्त उज्ज्वल और प्रेरणाप्रद रहा है। मानव-पवित्रता की रक्षा के लिये इस जनतन्त्रमूलक संस्कृति ने कितना भारी वर्ग संघर्ष किया है, कितनी यातनाएं सही, यह तो इसका इतिहास ही बतायेगा, निवृत्तिमूलक प्रवृत्ति द्वारा इस परंपरा ने भारतीयसंस्कृति और सभ्यता के मौलिक स्वरूप को संकटकाल में भी, अपने आपको होमकर, सुरक्षित रखा। भारतीय नैतिकता और परंपरा की रक्षा, श्रमण एवं तदनुयायी वर्ग ने भलीभांति की। उसमें सामयिक परिवर्तन और परिवर्द्धन कर जानतिक सुख शान्ति को स्थिर रखा, मानव द्वारा मानव शोषण की भयंकर रीतिका घोर विरोध कर, समत्व की मौलिक भावना को अपने जीवन में मूर्तरूप देकर, जन-जीवन में सत्य और अहिंसा की प्रतिष्ठा की। कला और सौन्दर्य द्वारा मानव परंपरा के उच्चतर दार्शनिक भावों को छैनी एवं तूलिका के सहारे रूपदान दे-दिलवाकर भावमूलक विचारोत्तेजक परंपरा का संरक्षण किया । निर्दोष, बलीष्ठ और प्रगतिशील साहित्य की सृष्टि कर न केवल तत्कालीन जन-जीवन उभयन में महत्वपूर्ण योग ही दिया अपितु सामाजिक और लोकसंस्कृति के बहुमूल्य सिद्धान्तों एवम् भारतीय इतिहास विषयक साधनों में उल्लेखनीय अभिवृद्धि की । अनुभवमूलक ज्ञान दान से राष्ट के प्रति जनता को जागृत किया, आध्यात्मिक विकास के साथ साथ समाज
और राष्ट्र को भी उपेक्षित न रखा । ज्ञानमूलक प्राचारों को अपने जीवन में साकार कर जनता के सामने चरित्रनिर्माण विषयक नूतन आदर्श उपस्थित किया, और गत्मिक साधना में प्राणीमात्र को समान अधिकार दिया । मानवकृत * त्व नीचत्व की दीवारों को समूल नष्टकर प्रखण्ड मानव संस्कृति का सामर्थन किया। इन्ही कारणों से शताब्दियों तक भमासंस्कृति की धारा अखंडरूप से वही और बह रही है । सामाजिक शान्ति के बाद उनका अन्तिम साध्य था मुक्ति ।
"Aho Shrut Gyanam"