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[ 1 ] अपना स्वन्तत्र स्थान है । नवग्रहों का स्पष्ट अंकन भी उस समय आवश्यक था । ऐसी एक प्रतिमा मुझे भी मध्यप्रदेश से प्राप्त हुई थी । इस युग की कुछेक मूर्तियों में लेख भी उपलब्ध हुए हैं, पर वे सामान्य बातों की ही सूचना देते हैं । प्रतिष्ठापक प्राचार्य या मुनि तथा बनवाने वाले प्रावक का नाम और कुछेक में संवत, बस लेख यहीं समाप्त ! इस काल की कृतियों पर मैंने अन्यत्र विस्तार से विवेचन किया है अतः यहां पिष्टपेषण व्यर्थ है।
उत्तरवर्ती कालीन जैनप्रतिमात्रों की निर्माण शैली में भारी परिवर्तन हुआ । सम्पुर्ण परिकरयुक्त मूर्तियां ११ वीं शती. के बाद भी मिलती हैं परन्तु उनमें कला तत्व बहुत दी कम रह गया। परिकर का विकास तो हुआ, पर प्रधान प्रतिमा का गौरव कम हो गया, आकर्षकतत्वविहीन प्रतिमा कलाकारों की वस्तु न रहकर धार्मिक वस्तु तक ही सीमित रह गई । पिछला माग पूर्वापेक्षया अधिक स्पष्ट और साफ रहने लगा, और विस्तार से लेख लिखे जाने लगे । संवत, प्राचार्यररंपरा, ग्रहस्थ,नाम शाती, नगर, नक्षत्र, वार श्रादि अनेक ज्ञातव्य बातों का उल्लेख पश्चातवर्ती मूर्तियों में रहने लगा । निर्माण संख्या भी खूब बढ़ी।
पश्चिम भारतीय मूर्तियाँ श्वेताम्बर सम्प्रदाय से सम्बद्ध है, दक्षिण की दिगम्बर । परन्तु कला और लेखन शैली का जहाँ तक प्रश्न है श्वेताम्बर अधिक सफल रहे।
धातुप्रतिमा के लेखों का महत्व सार्वजनिक इतिहास की दृष्टि से भले ही अधिक न हो, पर श्रमणपरंपरा और समाज विषयक इतिहास की अपेक्षा से महत्वपूर्ण है । जातियों और गच्छों का तथा भारतीय भौगोलिक इतिहास की सामग्री इन्हीं से प्राप्त होती है । सुप्रसिद्ध विद्वान डा० ए० गेरिनाट ने ठीक ही कहा है--
उन शिला लेखों का व जैनों के व्यवहारिक साहित्य का अभ्यास भारतीय इतिहास के.ज्ञान प्राप्त करने में सहाय रूप हो सकेगा।
धातु प्रतिमाओं के लेखों से इतना तो कहा ही जा सकता है कि जैन
"Aho Shrut Gyanam"