SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १८ ) शहर के मंदिर ( १ ) श्री सुपार्श्वनाथजी का मंदिर :- इस मन्दिर को प्रतिष्ठा तपगच्छीय श्रावकों को ओर से जैसलमेर सहर में सं० १८६६ में हुई थी । यद्यपि इस राज्य में स्वरतरगच्छीय आचार्यों का हो प्राधान्य था तथापि तपगच्छ के आचार्य लोग भी यहां 'विहार प.रते हुए काते जाते थे । तपगच्छाचार्य विजयदेवसूरिजी के प्रतिष्ठित कई मूर्तियां इस मंदिर में हैं । वत्तमान मन्दिर को प्रतिष्ठा के विषय में जहां तक प्रशस्ति से उपलब्ध है तपगच्छ के प्रसिद्ध आवश्यं होरविजय सुरिजो की शाखा में गुलारविजयजी के दो शिष्य दीपवियजो और नगविजयजी ने प्रतिष्ठा कार्य कराया था | नगविजयजी ने प्रशस्ति भो लिफी थी । इस की रचना गद्यपद्य युक्त पांडित्यपूर्ण किट संस्कृत भाषा में है । ( २ ) श्री विमलनाथजी का मंदिर : -- यह मन्दिर आचार्यगच्छ के उपासरे में है । मन्दिर प्रतिष्ठा की कोई प्रशस्ति मिलो नहीं । मूलनायकजी की मूर्ति के लेख से मालूम होता है कि सं० १६६६ में तपगच्छाचार्य विजयसेनसूरिजी के हाथ से प्रतिष्ठा कार्य हुआ था । शहर के देरासर देरासर : -- इनके हवेली के पास हो यह ( १ ) सेव धीरूसाहजी का देरासर है । मेवाड़ के THINE की तरह सेठ थाहसाह को भी यहां पर विशेष ख्याति 1 यह भणसाली गोत्र के थे। लोद्रवा का वर्तमान मंदिर इन्हीं का जीर्णोद्वार कराया हुआ है जिसका विवरण यथा स्थान में मिलेगा। शहर के बाजार में जहां ये व्यापार करते थे वे सव स्थान अद्यावधिक नाम से प्रसिद्ध है । वाफा गोत्रीय इंदौर वाले सेठों की हवेली में यह देशसर है और वहां की प्रशस्ति में उल्लेख है कि इसकी प्रतिष्ठा सं० १६०० में हुई थी । यहां चांदी के मुलनायकजी सं० १६०१ की प्रतिष्ठित हैं । ( २ ) सेठ केशरीमलजी का देरासर : "Aho Shrut Gyanam"
SR No.009680
Book TitleJain Lekh Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPuranchand Nahar
PublisherPuranchand Nahar
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy