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________________ भारतीय संवत् चला था. इसका वर्ष ज्येष्ठ शुक्ला १३ से पलटता था और वर्तमान ही लिखा जाता था. इसका प्रचार मराठों के राज्य में रहा परंतु अब यह लिया नहीं जाता. २५ --थाईस्पत्य संघरसर ( १२ वर्ष का ). यह बाहेस्पत्य संवत्सर १२ वर्ष का चक्र है और इसका संबंध वृहस्पति की गति से है. इसके वर्षों के नाम कार्तिकादि १२ महीनों के अनुसार हैं परंतु कभी कभी महीनों के नाम के पहिले 'महा लगाया जाता है जैसे कि 'महाचैव', 'महावैशाख आदि. सूर्य समीप आने से बृहस्पति अस्त हो कर जब सूर्य उससे आँगे निकल जाता है तब (२५ से ३१ दिन के बाद) जिस नक्षत्र पर फिर वह (वृहस्पति) उदय होता है उस नक्षत्र के अनुसार संवत्सर (बर्ष) का नाम नीचे लिख क्रम से रकवा जाता है कृतिका या रोहिणी पर उदय हो तो महाकार्तिक (कार्मिक); मृगशिर या माद्री पर महामार्गशीर्ष ( मार्गशीर्ष ); पुनर्वसु या पुष्प पर महापौषः अश्लेषा या मवा पर माहमाघ ; पूर्वाफाल्गुनी, उसराफाल्गुनी या हस्त पर महाफाल्गुनः चित्रा या स्वाति पर महाचैत्र; पिशाखा या अनुराधा पर महावैशाख ; ज्येष्ठा या मूल पर महाग्येट; पूर्वाषाढा या उत्तराषाढा पर महापाषान; श्रवण या धनिष्ठा पर महाश्रावण ; शतभिषा, पूर्वाभाद्रपदा या उत्तराभाद्रपदा पर महाभाद्रपद मौर रेवती, अश्विनी या भरणी पर उदय हो तो महाअाश्वयुज (आश्विन)सवत्सर कह जाना है। इस पर में १२ वर्षों में एक संवत्सर क्षय हो जाता है. प्राचीन शिलालेख और दानपत्रों में वाहस्पत्य संवत्सर दिये हए मिलते हैं, जो सब ई. स. की ७ वी शताब्दी के पर्व के हैं. उसके पीछे इस का प्रचार सामान्य व्यवहार से उठ गया और केवल पंचांगों में वर्ष का नाम नलाने मेंही गया जो अब तक चला जाता है. २२-याईस्पस्य संवत्सर । ६० वेप का), यह वाहस्पत्य संवत्सर ६० वर्ष का चक है. इसमें वर्षों की संख्या नहीं किंतु १ से ३० तक के नियत नाम ही लिखे जाते हैं. मध्यम मान से बृहस्पति के एक राशि पर रहने के समय को 'बाईस्पस्य संवत्सर' (वर्ष) कहते हैं जो ३६१ दिन, २ घड़ी और ५ पल का होता है, और सौर १. नक्षत्रेण सहोदयमुपगच्छति येन देवतिमन्त्री र तासह वक्तव्यं वा भाइ || बागि कति मान्या या वयानुषोगीनि । क्रमशस्त्रिभं तु पञ्चममुपान्त्यमन्त्यं च यदूर्षम् ॥ ( वाराही संहिता: अध्याय , श्लोक 1-२). १. १२ सौर वषों में ११ बार गुरु प्रस्त होकर फिर उदय होता है इसलिये १२ वर्ष में एक याईस्पत्य संबस्तर क्षय हो जाता है. जैसे कि पं. श्रीधर शिवलाल के वि. सं. १६६५ के पंचांग में वरनाम पोष' लिखा है परंतु १६६६ क पंचांग में 'घर्षनाम फाल्गुन' लिखा है जिससे माघ (महामाघ ) संवत्सर क्षय हो गया. १. भरतपुर राज्य के कोट नामक गांव से मिले एप शिलालेख में महाचैत्र' संबाला(सिम्पपई.स.१६१६. १७, पृ.२), परिक्षाजक महाराज हस्सिन के गुप्त संवत् १६३ ( ई. स. ४८२-३) के दानयन में महाआयुज' संवत्सर (त्रिषष्टयुत्तरेन्दयते गुप्तनृपराम्पभुक्तो महाश्वयुजसंवत्प(स)रे चेनमास एकमतदिनीयायाम-की गु पृ.१०२) और कवचं सो राजा मृगेशवर्मन् के राज्यवर्ष तीसरे के दानपत्र में 'पोष' संवत्सर-श्रीमृगेरामो प्रात्मनः राज्यस्य तलाये वा पापे संवत्सरे कार्तिकमासबहुलपक्षे दशम्यां तिथौ (ई. जि. ७, पृ. ३५) शादि. पं. श्रीधर शिवलाल के वि.सं. १६७४ के पंचांग में वर्ष नाम प्राश्विन और १६७५ के पंचांग में 'सर्वनाम कार्तिक' लिखा है, ये वर्षनाम २२ बरसषाले बाईस्पत्य संवत्सर के ही है. ४. बृहस्पतेमध्यमराशिभोगात्संवत्सरं साहितिका वदन्ति (भास्कराचार्य का सिद्धांतशिरोमणि १।३०). Ahoi Shrutgyanam
SR No.009672
Book TitleBharatiya Prachin Lipimala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaurishankar H Oza
PublisherMunshiram Manoharlal Publisher's Pvt Ltd New Delhi
Publication Year1971
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size8 MB
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