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प्राचीनलिपिमाला. वर्ष ३६५ दिन, १५ घड़ी, ३१ पल और ३० विपल का होता है, अतएव वाहस्पस्य संवत्सर सौर वर्ष से ४ दिन, १३ घड़ी और २३ पल के करीय छोटा होता है जिससे प्रति ८५ वर्ष में एक संवत्सर क्षय हो जाता है. इस चक्र के ६० वर्षों के नाम ये हैं
१प्रभव, २ विभव, ३ शुक्ल, ४ प्रमोद, ५ प्रजापति, ६ अंगिरा, ७ श्रीमुख, ८ भाव, ह युवा, १. धाता, ११ ईश्वर, १२ पहुधान्य, १३ प्रमाथी, १४ विक्रम, १५ वृष, १६ चित्रभानु, १७ सुभानु, १८ तारण, १९ पार्थिव, २० व्यय, २१ सर्वजित्, २२ सर्वधारी, २३ विरोधी, २४ विकृति, २५ खर, २६ नंदन, २७ विजय, २८ जय, २६ मन्मथ, ३० दुर्मुख, ३१ हेमलंब, ३२ विलंबी, ३३ विकारी. ३४ शार्वरी, ३५ प्रय, ३६ शुभकृत् , ३७ शोभन, ३८ क्रोधी, ३६ विश्वावसु, ४० पराभव, ५१ प्लषंग, ४२ कीलक, ४३ सौम्य, ४४ साधारण, ४५ विरोधकृत, ४६ परिधावी, ४७ प्रमादी, ४० मानंद. ५६ राक्षस, ५० अनल, ५१ पिंगल, ५२ कालयुक्त, ५३ सिद्धार्थी, ५४ रौद्र, ५५ दुर्मति, ५६ दुंदुभि, ५७ रुधिरोद्वारी ५८ रलाच, ५६ क्रोधन और ६० क्षय.
बराहमि दर में कलियुग का पहिला वर्ष विजय संवत्सर माना है परंतु 'ज्योतिषतत्व' के की ने प्रभवना है. उत्सरी हिंदुस्तान में इस संवत्सर का प्रारंभ बृहस्पति के राशि बदलने से माना जाता है परंतु व्यवहार में चैत्र शुक्ला १ से ही उसका प्रारंभ गिना जाता है. उसरी विक्रम संवत् १७५ के पंचांग में 'प्रमोद संवत्सर लिखा है जो वर्ष भर माना जायगा, परंत उसी पंचाग में यह भी लिखा है कि मेषा के समय (चैत्र शुक्ला ३ को) उसके १० मास, १६ दिन ४२ घड़ी और १५ पल व्यतीत हो चुके थे और १मास, १३ दिन, १७ घड़ी और ४५ पल बाकी रहे हैं।
वराहमिहिर के मत से उत्तरी बाहेस्पस्य संवत्सर का नाम मालूम करने का नियम यह है
इष्ट गत शक संवत् को ११ से गुणो, मुणनफल को चौगुना कर उसमें ८५८९ जोड दो. फिर योग में ७५० का भाग देने से जो फल आये उसको इष्ठ शक संवत् में जोड़ दो, फिर योग में ६० का भाग देने से जो शेष रहे वह प्रभवादि क्रम से गत संवत्सर की संख्या होगी।
दक्षिण में पार्हस्पत्य संवत्सर लिखा जाता है परंतु वहां इसका बृहस्पति की गति से कोई संबंध नहीं है. यहांषाले इस बाईस्पस्य संवत्सर को सौर वर्ष के बराबर मानते हैं जिससे उनके यहां कभी संवत्सर क्षय नहीं माना जाता. कलियुग का पहिला वर्ष प्रमाथी संवत्सर मान कर प्रतिवर्ष चैत्रगुतः १ से क्रमशः नवीन संवत्सर लिखा जाता है.
दक्षिणी वाहस्पत्य संवत्मर का नाम मालूम करने का नियम नीचे अनमार है
इष्ट गत शक संवत् में १२ जोड़ कर ६० का भाग देने से जो शेष रहे वह प्रभवादि वर्तमान संवरसर होगा; अथवा गत इष्ट कलियुग संवत् में १२ जोड़ कर ६० का भाग देने से जो शेष रहे वह प्रभवादि गत संवत्सर होगा।
( अय चलादी नर्मदोत्तरभागे बार्हस्पत्यमानेन प्रभवादिषष्ट्यब्दानां मध्ये ब्रह्माविंशतिकायां चतुर्थः प्रमोदनामा संवत्सरः प्रवर्तते तस्य मेपाकी प्रवेश समये गतमासादिः १०।१६। ४२ ! १५ भोग्यमासादिः १ । १३ । १७ । ४५ (झंयालाल ज्योतियरत्त का बनाया हुआ राजपूताना पंचांग वि.सं. १६७५ का).
२. गतानि वर्षाणि शकेन्द्रकालाव्रतानि रुदैर्गणवेचतुर्भिः । नवाष्टपंचाष्टयुतानि कृत्या विभाजयेच्छून्यपरागरामेः । फलेन युक्तं शकभूपकाल संशोध्य पाल्या........पाः क्रमशः समाः स्युः (वाराही संहिता, अध्याय , श्लोक २०-२९ ).
उदाहरण-विक्रम संवत् १९७५ में वाहस्पत्य संवत्सर कौनसा होगा?
गत वि.सं. १६७५गत शक संवत् (१९७५-२१५) १८४०.१८४०x११=२०२४०, २०२४०x४०६६०, ८०८६०+arta Reve, Ext : ३७४०-२३ ,१८५०+२३१८४० -३, शेष ३, जो गत संवत्सर है. इसलिये वर्तमान संवत्सर अर्थात् मोद.
३. प्रमायी प्रथम वर्ष कल्पादी ब्रह्मा स्मृत । तदादि षष्टिाछाके शेषं चांद्रोऽत्र वासरः ।। व्यावहारिकसंज्ञोऽयं कालः स्मृत्यादिकर्मसु । योज्यः सवत्र तत्रापि वो वा नर्मदोत्तर (पैतामहसिखांत).
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