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अन्य. यो. व्य. श्लोक ८]
स्याद्वादमञ्जरी
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तत्र सत्ता द्रव्यगुणकर्मभ्योऽर्थान्तरं कया युक्त्या इति चेद्, उच्यते । न द्रव्यं सत्ता, द्रव्यादन्येत्यर्थः, एकद्रव्यवत्त्वाद्-एकैकस्मिन् द्रव्ये वर्तमानत्वादित्यर्थः; द्रव्यत्ववत् । यथा द्रव्यत्वं नवसु द्रव्येषु प्रत्येकं वर्तमानं द्रव्यं न भवति, किन्तु सामान्यविशेषलक्षणं द्रव्यत्वमेव । एवं सत्तापि । वैशेषिकाणां हि अद्रव्यं वा द्रव्यम् , अनेकद्रव्यं वा द्रव्यम्। तत्राद्रव्यं आकाशः कालो दिग् आत्मा मनः परमाणवः । अनेकद्रव्यं तु द्वयणुकादिस्कन्धाः। एकद्रव्यं तु द्रव्यमेव न भवति; एकद्रव्यवती च सत्ता । इति द्रव्यलक्षणविलक्षणत्वाद् न द्रव्यम् । एवं न गुणः सत्ता, गुणेषु भावाद, गुणत्ववत् । यदि हि सत्ता गुणः स्याद् न तर्हि गुणेषु वर्तते, निर्गुणत्वाद् गुणानाम् । वर्तते च गुणेषु सत्ता। सन् गुण इति प्रतीतेः। तथा न सत्ता कर्म, कर्मसु भावात् ,
विशेष रूप है । इसी तरह गुणत्व चौबीस गुणोंमें रहनेसे सामान्य रूप; तथा द्रव्य और कर्ममें न रहनेसे विशेष रूप है। अतएव गुणत्वकी अपेक्षा रूपत्व आदि, और रूपत्व आदिकी अपेक्षा नीलत्व आदि अपर सामान्य है। इसी प्रकार कर्मत्व पाँच कर्मों में रहता है, इसलिए सामान्य, तथा द्रव्य और गुणोंमें नहीं रहता, इसलिए विशेष है, तथा कर्मत्वकी अपेक्षा उत्क्षेपण आदि अपर सामान्य है। (वैशेषिक लोग सामान्यको पर सामान्य और अपर सामान्यके भेदसे दो प्रकारका मानते हैं । इनके मतानुसार पर सामान्य केवल द्रव्य, गुण और कर्म तीन पदार्थों में ही रहता है, अन्यत्र नहीं। पर सामान्यको महासामान्य भी कहते हैं। पर सामान्यका विषय अपर सामान्यसे अधिक है। द्रव्यत्व, गुणत्व आदि अपर सामान्यके विषय हैं; 'पदार्थत्व' (द्रव्य, गुण आदि पदार्थों में रहनेवाला ) पर सामान्यका विषय कहा जा सकता है । अपर सामान्यको सामान्य-विशेष भी कहते हैं। क्योंकि यह अपर सामान्य अपने विशेषोंको सामान्यरूपसे ग्रहण करनेके साथ उनकी अन्य पदार्थोंसे व्यावृत्ति भी करता है । द्रव्यत्व द्रव्योंमें रहता है, इसलिए सामान्य, तथा गुण और कमसे व्यावृत्त होता है, इसलिए विशेष कहा जाता है। इसीलिए अपर सामान्यको सामान्य-विशेष भी कहा है।)
क्ष-(१) सत्ता द्रव्य, गुण और कर्मसे भिन्न है (द्रव्यगुणकर्मभ्योऽर्थान्तरं सत्ता-वैशेषिकसूत्र १-२-४)-सत्ता द्रव्यत्वकी तरह द्रव्यसे भिन्न है, क्योंकि वह प्रत्येक द्रव्यमें रहती है। जैसे द्रव्यत्व नौ द्रव्योंमें प्रत्येक द्रव्यमें रहता है, इसलिए द्रव्य नहीं कहा जाता, किन्तु सामान्य-विशेषरूप द्रव्यत्व कहा जाता है, इसी तरह सत्ता भी प्रत्येक द्रव्यमें रहनेके कारण द्रव्य नहीं कही जाती। वैशेषिकोंके मतमें अद्रव्यत्व अथवा अनेकद्रव्यत्व ही द्रव्यका लक्षण है । आकाश, काल, दिक्, आत्मा, मन और परमाणु अद्रव्यत्व (जो द्रव्योंसे उत्पन्न नहीं हुआ हो, अथवा द्रव्योंका उत्पादक न हो) के उदाहरण है, क्योंकि न तो आकाश आदि किसी द्रव्यसे बनाये गये हैं, और न किसी द्रव्यके उत्पादक हैं । तथा व्यणुकादिस्कंध अनेकद्रव्यत्व (जो अनेक द्रव्योंसे उत्पन्न हुए हों, अथवा अनेक द्रव्यों के उत्पादक हों) के उदाहरण है। एक द्रव्यमें रहनेवाला द्रव्य नहीं होता। सत्ता एक द्रव्यमें रहती है, इसलिए सत्तामें द्रव्यका लक्षण नहीं घटता, अतएव वह द्रव्य नहीं है। इसी प्रकार सत्ता गुण भी नहीं है, क्योंकि वह गुणत्वकी तरह गुणोंमें रहती है। यदि सत्ता गुण होती, तो वह गुणोंमें न रहती, क्योंकि गुणोंमें गुण नहीं रहते । सत्ता गुणोंमें रहती है, और गुण सत् है-ऐसी प्रतीति होती है, इसलिए सत्ता गुणोंमें विद्यमान है। इसी तरह सत्ता कर्म भी नहीं है, क्योंकि वह कर्मत्वकी तरह कर्ममें रहती है। यदि सत्ता कर्म हो, तो कर्ममें न रहे, क्योंकि कर्ममें कर्म नहीं रहते। सत्ता कर्ममें रहती है। अतएव सत्ताको पदार्थान्तर ही मानना चाहिए। (भाव यह है कि वैशेषिक सिद्धान्तके अनुसार सत्ता द्रव्य, गुण और कर्मसे भिन्न पदार्थ है । सत्ताको द्रव्यसे पृथक् बतानेके लिए वैशेषिक लोग 'एकद्रव्यवत्त्व' हेतु देते हैं। उनके मतानुसार द्रव्य 'अद्रव्य' और 'अनेकद्रव्य' के भेदसे दो प्रकारका माना गया है । आकाश, काल आदि द्रव्योंसे उत्पन्न नहीं होते, और न द्रव्योंको उत्पन्न करते हैं, अतएव वे अद्रव्य-द्रव्य हैं। तथा द्वयणुकादि अनेक द्रव्योंसे उत्पन्न
१ द्रव्यं द्विधा । अद्रव्यमनेकद्रव्यं च । न विद्यते द्रव्यं जन्यतया जनकतया च यस्य तद्रव्यं द्रव्यम् । यथाकाशकालादि । अनेक द्रव्यं जन्यतया च जनकतया च यस्य तदनेकद्रव्यं द्रव्यम् ।