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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक ८ कर्मत्ववत् । यदि च सत्ता कर्म स्याद् न तर्हि कर्मसु वर्तेत, निष्कर्मत्वात् कर्मणाम् । वर्तते च कर्मसु भावः; सत् कर्मेति प्रतीतेः । तस्मात् पदार्थान्तरं सत्ता ॥
तथा विशेपा नित्यद्रव्यवृत्तयः अन्त्याः-अत्यन्तव्यावृत्तिहेतवः, ते द्रव्यादिवलक्षण्यात पदार्थान्तरम् । तथा च प्रशस्तकारः-"अन्तेषु भवा अन्त्याः; स्वाश्रयविशेपकत्वाद् विशेपाः । विनाशारम्भरहितेपु नित्यद्रव्येष्वण्वाकाशकालादिगात्ममनस्सु प्रतिद्रव्यमेकैकशो वर्तमाना अत्यन्तव्यावृत्तिबुद्धिहेतवः। यथास्मदादीनां गवादिष्वश्वादिभ्यस्तुल्याकृतिगुणक्रियावयवोपचयावयवविशेपसंयोगनिमित्ता प्रत्ययव्यावृत्तिर्दृष्टा । गौः शुक्लः शीघ्रगतिः पीनः ककुद्मान् महाघण्ट इति; तथास्मद्विशिष्टानां योगिनां नित्येषु तुल्याकृतिगुणक्रियेपु परमाणुपु, मुक्तात्ममनस्सु चान्यनिमित्तासम्भवाद् येभ्यो निमित्तेभ्यः प्रत्याधारं विलक्षणोऽयं विलक्षणोऽयमिति प्रत्ययव्यावृत्तिः देशकालविप्रकृष्टे च परमाणौ स एवायमिति प्रत्यभिज्ञानं च भवति, तेऽन्त्या विशेषाः" इति । अमी च विशेपरूपा एव न तु द्रव्यत्वादिवत् सामान्यविशेपोभयरूपाः, व्यावृत्तरेव हेतुत्वात् ॥
तथा अयुतसिद्धानामाधार्याधारभूतानामिहप्रत्ययहेतुः सम्बन्धः समवाय इति । अयुतसिद्धयोः परस्परपरिहारेण पृथगाश्रयानाश्रितयोराश्रयाश्रयिभावः इह तन्तुपु पटः इत्यादेः प्रत्ययस्यासाधारणं कारणं समवायः। यद्वशात् स्वकारणसामर्थ्यादुपजायमानं पटाद्याधार्य तन्त्वाद्याधारे सम्बध्यते, यथा छिदिक्रिया छेद्येनेति सोऽपि द्रव्यादिलक्षणवैधात पदार्थान्तरम् । इति पट पदार्थाः ।। होते हैं, और अनेक द्रव्योंको उत्पन्न करनेवाले हैं, इसलिए वे अनेकद्रव्य-द्रव्य हैं। सत्ता न 'अद्रव्य' है और न 'अनेकद्रव्य'; वह द्रव्यत्वकी तरह प्रत्येक पदार्थ में रहनेवाली है, इसलिए सत्ताका द्रव्यमें अन्तर्भाव नहीं हो सकता। इसी प्रकार सत्ता गुण और कर्म भी नहीं है, क्योंकि वह गुणत्व और कर्मत्वकी तरह क्रमसे प्रत्येक गुण और कर्ममें रहती है । अतएव सत्ता द्रव्य, गुण और कर्म तीनोंसे भिन्न है।)
तथा, नित्य द्रव्योंमें रहनेवाले अत्यन्त व्यावृत्ति रूप 'विशेष' भी द्रव्यादिसे विलक्षण होनेके कारण पदार्थान्तर है । प्रशस्तकारने कहा है “अन्तमें होनेके कारण ये अन्त्य हैं, और अपने आश्रयके नियामक हैं, इसलिये विशेष हैं। ये विशेष आदि और अन्त रहित अणु, आकाश, काल, दिक् आत्मा और मन-इन नित्य द्रव्योंमें रहते हैं, और अत्यन्त व्यावृत्ति रूप ज्ञानके कारण हैं । जैसे गौ और घोड़े आदिमें तुल्य आकृति, गुण, क्रिया, अवयवोंको वृद्धि, अवयवोंका संयोग देखकर यह गौ सफेद है, शीघ्र चलनेवाली है, मोटी है, कुब्बेवाली है, महान् घण्टेवाली है आदि रूपसे व्यावृत्तिप्रत्यय ( विशेषज्ञान ) होता है; वैसे ही हमसे विशिष्ट योगी लोगों को नित्य, तुल्य आकृति, गुण और क्रियायुक्त परमाणुगों में, तथा मुक्त आत्मा और मनमें जिन निमित्तोंके कारण पदार्थोकी विलक्षणताका ज्ञान होता है, तथा देश और कालकी दूरी होनेपर भी यह वही परमाणु है, यह प्रत्यभिज्ञान होता है, वे विशेष है।" ये विशेष विशेष रूप ही हैं, द्रव्यत्व आदिकी तरह सामान्य-विशेष रूप नहीं है, क्योंकि ये केवल व्यावृत्तिप्रत्ययके ही हेतु हैं । ( भाव यह है कि विशेप सजातीय और विजातीय पदार्थों के व्यवच्छेद करनेवाले अत्यन्त व्यावृत्ति रूप होते हैं। दो पदार्थों में तुल्य आकृति, गुण, क्रिया आदि देखकर उनमें से अन्य पदार्थोंको अलग करके एक पदार्थको जानना विशेष है । ये विशेष विशेष रूप होते है,सामान्य-विशेष रूप नहीं।)
अयुतसिद्ध आधार्य, और आधार पदार्थोंका इहप्रत्यय हेतु समवाय सम्बन्ध है। एक दूसरेको छोड़कर भिन्न आश्रयोंमें न रहनेवाले गुण, गुणो आदि अयुतसिौके 'इन तन्तुओंमें पट है' इत्यादि ज्ञानका असाधारण कारण समवाय है । जैसे छेदन क्रियाका छेद्य (छेदने योग्य ) के साथ सम्बन्ध है, वैसे ही जिसके
१ अन्तेऽवसाने वर्तन्त इत्यन्त्या यदपेक्षया विशेपो नास्तीत्यर्थः । एकमात्रवृत्तय इति भावः । २ विशेपप्रकरणे प्रशस्तपादभाष्ये पृ० १६८ ।