SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अन्य. यो. व्य. श्लोक ५ ] स्याद्वादमञ्जरी १७ अथ यच्चाक्षुषं तत्सर्वं स्वप्रतिभासे आलोकमपेक्षते । न चैवं तमः । तत्कथं चाक्षुषम् ? नैवम् । उलूकादीनामालोकमन्तरेणापि तत्प्रतिभासात् । यैस्त्वस्मदादिभिरन्यच्चाक्षुषं घटादिकमालोकं विना नोपलभ्यते तैरपि तिमिरमालोकयिष्यते । विचित्रत्वात् भावानाम् । कथमन्यथा पीतश्वेतादयोऽपि स्वर्णमुक्ताफलाद्या आलोकापेक्षदर्शनाः । प्रदीपचन्द्रादयस्तु प्रकाशान्तरनिरपेक्षाः । इति सिद्ध तमश्चाक्षुपम् ॥ रूपवत्त्वाच्च स्पर्शवत्त्वमपि प्रतीयते; शीतस्पर्शप्रत्ययजनकत्वात् । यानि त्वनिविडावयवत्वमप्रतिघातित्वमनुद्भूतस्पर्श विशेषत्वमप्रतीयमानखण्डावय विद्रव्यप्रविभागत्वमित्यादीनि तमसः पौद्गलिकत्व निषेधाय परैः साधनान्युपन्यस्तानि तानि प्रदीपप्रभादृष्टान्तेनैव प्रतिषेध्यानि; तुल्ययोगक्षेमत्वात् ॥ सदा विद्यमान रहती है। इसी तरह दीपकके तेज-परमाणुओंका अन्धकार- परमाणुओंमें परिणमन होनेसे द्रव्यका नाश ( अनित्यत्व ) नहीं होता। यह केवल परमाणुओंका एक पर्यायसे दूसरी पर्यायमें परिणत हो जाना मात्र है । इसलिए हमें दीपकको सर्वथा अनित्य ही नहीं कहना चाहिए, क्योंकि तम अभावरूप नहीं है । पर्याय से पर्यायान्तर होने को ही तम कहते हैं । अन्धकारका पोद्गलिक होना असिद्ध नहीं क्योंकि वह प्रकाशकी तरह चक्षुका विषय है। जो जो चक्षुका विषय होता है, वह पौद्गलिक होता है । प्रकाशकी तरह अन्धकार भी चक्षुका विषय है, इसलिए वह पौद्गलिक है । शंका--जो चाक्षुष पदार्थ है, वह प्रतिभासित होनेमें आलोकको अपेक्षा रखता है । परन्तु तमके प्रतिभासमें प्रकाशकी ज़रूरत नहीं, इसलिए तम चक्षुका विषय नहीं कहा जा सकता । समाधान - उक्त व्याप्ति ठीक नहीं है । क्योंकि उल्लू आदि बिना आलोकके भी तमको देखते हैं। यह ठीक है कि अन्य चाक्षुष घट, पट आदिको बिना प्रकाशके हम नहीं देखते, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि तमके देखनेमें भी हमें प्रकाशकी आवश्यकता पड़े। संसारमें पदार्थोंके विचित्र स्वभाव होते हैं। पीत सुवर्ण और श्वेत मोती आदि तैनस होनेपर भी बिना प्रकाशके प्रतिभासित नहीं होते जबकि दीपक, चन्द्र आदि प्रकाशके बिना ही दृष्टिगोचर होते हैं । अतएव तम चाक्षुष है, यद्यपि प्रकाशके अभावमें भी उसका ज्ञान होता है । तथा अन्धकार रूपवान् होनेके कारण स्पर्शवान् भी है। क्योंकि इसमें शीत स्पर्शका ज्ञान होता है । वैशेषिक लोग तमका पोद्गलिकत्व निषेध करनेके लिए (१) कठोर अवयवोंका न होना (२) अप्रतिघाति होना, (३) अनुद्भूत स्पर्शका न होना, (४) खण्डित अवयवीरून द्रव्यविभागकी प्रतीति न होना - आदि हेतु देते हैं । इन हेतुओंको ग्रन्थका र प्रदीपको प्रभाके दृष्टान्तसे खण्डिन करते हैं । क्योंकि अन्धकार और प्रदीपप्रभा दोनों ही समान है । (तात्पर्य यह है कि जैनदर्शनमें प्रकाश और अन्धकारको पुद्गलको पर्याय माना है, अतएव प्रकाशकी भाँति अन्धकार भी एक स्वतन्त्र वस्तु है; अन्धकार भी प्रकाशकी भाँति चक्षुका विषय है । परन्तु वैशेषिकोंके मतमें प्रकाशका अभाव हो तम है, स्वतन्त्र द्रव्य वह नहीं । वैशेषिकों का कहना है कि जो घट, पट पदार्थ चक्षुसे जाने जाते हैं, उन सबमें प्रकाशकी आवश्यकता होती है जबकि तमको जानने में प्रकाशको जरूरत नहीं पड़तो, इसलिए तम चक्षुका विषय नहीं है, और इसलिए उसे पुद्गलको पर्याय भी नहीं कहा जा सकता। इसके उत्तर में जैनों का कथन है कि वैशेषिकोंकी उपर्युक्त व्याप्ति ठीक नहीं कही जा सकती । कारण कि बिल्ली, उल्लू वगैरह प्रकाशके न रहते हुए भी तमका ज्ञान करते हैं। इसलिए यह व्याप्ति तर्कसंगत नहीं कि समस्न चाक्षुष पदार्थ आलोककी अपेक्षा रखते हैं । सुवर्ण, मोती आदि चाक्षुष होनेपर प्रकाशको सहायतासे प्रतिभासित होते हुए देखे जाते हैं, परन्तु दीपक, चन्द्र आदि नहीं। इसलिए प्रकाशकी भाँति तमको भी चक्षुका विषय मानना युक्तियुक्त है । अन्धकार चाक्षुष होनेसे जैनदर्शन में उसे स्पर्शवान् भो माना गया है। क्योंकि जैनदर्शन के अनुसार किसी पदार्थ में स्पर्श रस, गन्ध और वर्णमेंसे किसी एकके रहनेपर बाकीके तीन गुण उसमें अवश्य रहते हैं । यही पुद्गलका लक्षण भी है । परन्तु वैशेषिकों को अन्धकारमें स्पर्शत्व स्वीकार करना अभीष्ट नहीं है। उनका कहना है कि अन्धकारमें कठोरता ३
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy