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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक २ हे नाथ ! अयं-मल्लक्षणो जनः; तव गुणान्तरेभ्यो-यथार्थवाव्यतिरिक्तेभ्योऽनन्यसाधारणशारीरलक्षणादिभ्यः, स्पृहयालुरेव-श्रद्धालुरेव । किमर्थम् ? स्तवाय-स्तुतिकरणाय । इयं "तादर्थं चतुर्थी' । पूर्वत्र तु "स्पृहेाप्यं वा" इतिलक्षणा चतुर्थी । तव गुणान्तराण्यपि स्तोतुं स्पृहावानयं जन इति भावः । ननु यदि गुणान्तरस्तुतावपि स्पृहयालुता तत्कि तान्यपि स्तोष्यति स उत नेत्याशङ्कथोत्तरार्धमाह-किन्त्विति-अभ्युपगमपूर्वकविशेषद्योतने निपातः । एकम्-एकमेव । यथार्थवाद यथावस्थितवस्तुतत्त्वप्रख्यापनाख्यं त्वदीयं गुणम्, अयं जनो विगाहतां-स्तुतिक्रियया समन्ताद्वयाप्नोतु । तस्मिन्नेकस्मिन्नपि हि गुणे वर्णिते तन्त्रान्तरोयदैवतेभ्यो वैशिष्टयख्यापनद्वारेण वस्तुतः सर्वगुणस्तवनसिद्धेः।। अथ प्रस्तुतगुणस्तुतिः सम्यकपरीक्षाममाणां दिव्यशामें वौचिती मञ्चति, नाग्दिशा भवादृशामित्याशङ्कां विशेपणद्वारेण निराकरोति । यतोऽयं जनः परीक्षाविधिदुर्विदग्धःअधिकृतगुणविशेषपरीक्षणविधौ दुर्विदग्धः-पण्डितंमन्य इति यावत् । अयमाशयः। यद्यपि जगद्गुरोर्यथार्थवादित्वगुणपरीक्षा मादृशा मतेरगोचरः, तथापि भक्तिश्रद्धातिशयात् तस्यामहमात्मानं विदग्धमिव मन्य इति । विशुद्धश्रद्धाभक्तिव्यक्तिमात्रस्वरूपत्वात् स्तुतेः ।। इति वृत्तार्थः ॥२॥ व्याख्यार्थ-हे नाथ ! मैं (हेमचन्द्र) आपके यथार्थवादके अतिरिक्त दूसरोंमें न पाये जानेवाले शरीरलक्षण आदि अन्य गुणोंके प्रति भी श्रद्धा रखता हूँ। [ 'स्तवाय' यहां 'तादर्थ्य चतुर्थी' (२।२।५४) सूत्रसे तादर्थ्यमें चतुर्थी, तथा 'गुणान्तरेभ्यः' पदमें 'स्पृहेाप्यं वा' (२।२।२६) सूत्रसे स्पृह, धातुके कर्ममें विकल्पसे चतुर्थी विभक्तिका प्रयोग हुआ है ] । तात्पर्य यह कि आपके अन्य गुणोंका स्तवन करनेको भी मेरी इच्छा है । शंका-यदि अन्य गुणोंके स्तवन करने में भी आपकी श्रद्धा है तो उनकी उपेक्षा क्यों करते हैं ? समाधान-इसका उत्तर श्लोकके उत्तरार्धमें दिया गया है। 'किन्तु' शब्दका यहाँ स्वीकृतिपूर्वक विशेष अर्थ में निपात हुआ है । यथार्थवाद नामक एक ही गुणके वर्णनसे अन्यमतों द्वारा मान्य देवताओंसे भगवानकी विशिष्टता सिद्ध होती है इसलिए इस एक गुणके स्तवनसे भगवान्के सम्पूर्ण गुणोंका स्तवन हो जाता है। शंका-उत्तम रीतिसे परीक्षा करनेमें समर्थ दिव्य, नेत्रवाले मुनीश्वर ही भगवान्के गुणोंकी स्तुति कर सकते हैं, आप जैसे छद्मस्थोंमें स्तुति करनेकी योग्यता नहीं है। समाधान-प्रस्तुत गुणोंकी परीक्षामें अपनेको पण्डित मानकर मैं (हेमचन्द्र) स्तुति आरम्भ करता हूँ। तात्पर्य यह है कि यद्यपि भगवान्के यथार्थवादित्व गुणकी परीक्षा करना मेरी बुद्धिके बाहर है, फिर भी भक्ति और श्रद्धाके वश मैं उस परीक्षामें अपनेको पण्डित समझता हूँ। क्योंकि विशुद्ध श्रद्धा और भक्ति प्रकट करना ही स्तुति है। यह श्लोकका अर्थ है ॥२॥ भावार्थ-यद्यपि भगवान् अनन्त गुणोंसे भूषित हैं, परन्तु अन्य मतों द्वारा मान्य आप्तोंसे भगवानकी असाधारणता दिखानेके लिये भगवान्के यथार्थवाद गुणका स्तवन करना ही पर्याप्त है । अतएव हेमचन्द्राचार्य दूसरे गुणोंके प्रति श्रद्धा रखते हुए भी यहाँपर भगवानके यथार्थवाद गुणको ही स्तुति करते हैं। १. हैमसूत्रम् २।२।५४ । २. हैमसूत्रम् २।२।२६ । ३. 'स्पहावानेवायम्' पाठान्तरम् 1 ४. 'तत्किमर्थ तत्रोपेक्षा इत्याशङ्क्योत्तरार्धमाह'. पाठान्तरम् । ५. अतीन्द्रियज्ञानिनां । ६. योग्यतां । ७. छद्मस्थानां।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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