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________________ अन्य. यो. व्य. श्लोक २] स्याद्वादमञ्जरी सिद्धान्तः कुनयर्बाधितुं शक्यते । यत एव स्वयम्भुवम्, अत एवामर्त्यपूज्यम् । पूज्यते हि देवदेवो जगत्त्रयविलक्षणलक्षणेन स्वयंसम्बुद्धत्वगुणेन सौधर्मेन्द्रादिभिरमत्यैरिति । अत्र च श्रीवर्धमानमिति विशेषणतया यद् व्याख्यातं तदयोगव्यवच्छेदाभिधानप्रथमद्वात्रिंशिकाप्रथमकाव्यतृतीयपादवर्तमानं "श्रीवर्धमानाभिधमात्मरूपम्” इति विशेष्यवर्तमानं बुद्धौ सम्प्रधार्य विज्ञेयम् । तत्र हि आत्मरूपमिति विशेष्यपदम्, प्रकृष्ट आत्मा आत्मरूपस्तं परमात्मानमिति यावत् । आवृत्त्या वा विशेषणमपि विशेष्यतया व्याख्येयम् ।। इति प्रथमवृत्तार्थः ।।१।। अस्यां च स्तुतावन्ययोगव्यवच्छेदोऽधिकृतस्तस्य च तीर्थान्तरीयपरिकल्पिततत्त्वाभासनिरासेन तेषामाप्तत्वव्यवच्छेदः स्वरूपम् । तच्च भगवतो यथावस्थितवस्तुतत्त्ववादित्वख्यापनेनैव प्रामाण्यमश्नुते । अतः स्तुतिकारस्त्रिजगद्गुरोनिःशेषगुणस्तुतिश्रद्धालुरपि सद्भूतवस्तुवादित्वाख्यं गुणविशेषमेव वर्णयितुमात्मनोऽभिप्रायमाविष्कुर्वन्नाह अयं जनो नाथ ! तव स्तवाय गुणान्तरेभ्यः स्पृहयालुरेव । विगाहतां किन्तु यथार्थवादमेकं परीक्षाविधिदुर्विदग्धः ॥२॥ भगवान् आप्समुख्य हैं । अतएव भगवान्का सिद्धान्त अबाध्य है। क्योंकि जिस प्रकार पदार्थ ज्ञानमें झलकते हैं. उन्हें उसी प्रकार कथन करनेवाले सिद्धान्तमें बाधा नहीं आ सकती । भगवान् स्वयम्भू हैं, इसलिए देवोंसे वन्दनीय हैं। तीनों लोकोंमें विलक्षण स्वयम्भसम्बुद्धत्व (स्वयं ज्ञानको प्राप्त ) गुणके कारण देवोंके देव भगवान् सौधर्म इन्द्रादि देवोंसे पूजे जाते हैं। यहां 'श्रीवर्धमान' विशेषणका सम्बन्ध अयोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिकाके प्रथम श्लोकके तृतीय चरण 'श्रीवर्धमानाभिधमात्मरूपम्' विशेष्यके साथ लगाना चाहिए। 'आत्मरूप' विशेष्य है; जिसको आत्मा प्रकृष्ट हो उसे आत्मरूप-परमात्मा-कहते हैं। अथवा पुनः आवृत्ति करके, श्रीवर्धमान पदको पहले विशेषण बनाकर फिर विशेष्य रूपसे प्रतिपादन करना चाहिए। यह प्रथम श्लोकका अर्थ है ॥१॥ भावार्थ-इस श्लोकमें ग्रन्थके आदिमें मंगलाचरण द्वारा भगवान्का स्तवन करते हुए, अनन्तविज्ञान, अतीतदोष, अबाध्यसिद्धान्त, अमर्त्य पूज्य विशेषणोंसे भगवानके ज्ञानातिशय, अपायापगमातिशय, वचनातिशय, पूजातिशय नामक चार अतिशयोंका प्रतिपादन किया गया है। तथा आजीवक और वैशेषिकमतके निराकरण करनेके लिए क्रमशः अनन्तविज्ञान और अतीतदोष, तथा अपौरुषेय वेदादिकी निवृत्तिके लिए और भगवानका देवाधिदेवत्व सूचित करनेके लिए क्रमसे अबाध्यसिद्धान्त और अमर्त्यपूज्य विशेषण दिये गये हैं। इस स्तुतिमें 'अन्ययोगव्यवच्छेद' अर्थात् 'दूसरे दर्शनोंका व्यवच्छेद' किया गया है। अन्य तीथिकों द्वारा मान्य तत्त्वाभासोंके खण्डन करनेसे ही उनके आप्तत्वका व्यवच्छेद किया जा सकता है। तथा यह कार्य भगवान्के यथार्थवादित्व गुणके विवेचनसे ही साध्य हो सकता है। अतएव स्तुतिकार आचार्य तीन लोकके अधिपति भगवानके समस्त गुणोंकी स्तुतिमें श्रद्धा रखते हुए भी यथार्थवादित्व गुणका ही वर्णन करते हैं श्लोकार्थ-हे नाथ ! परीक्षा करने में अपनेको पण्डित समझनेवाला, मैं (हेमचन्द्र), आपके दूसरे गुणोंके प्रति स्पृहाभाव रखते हुए भी, आपके स्तवनके लिए आपके यथार्थवाद गुणका प्रतिपादन करता हूँ। १. अगम्यमध्यात्मविदामवाच्यं वचस्विनामक्षवतां परोक्षम् । श्रीवर्धमानाभिधमात्मरूपमहं स्तुतेर्गोचरमानयामि ॥१॥ इति अयोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिकायां सम्पूर्णः श्लोकः ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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