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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक १ मातभरति सन्निधेहि हृदि मे येनेयमाप्तस्तुतेनिर्मात विवति प्रसिद्ध्यति जवादारम्भसम्भावन यद्वा विस्मृतमोष्ठयोः स्फुरति यत् सारस्वतः शाश्वतो मन्त्रः श्रीउदयप्रभेतिरचनारम्यो ममानिशम् ॥४॥ अवतरणिका इह हि विषमदुःषमाररजनितिमिरतिरस्कारभास्करानुकारिणा वसुधातलावतीर्णसुधासारिणीदेश्यदेशनावितानपरमाईतीकृतश्रीकुमारपालक्ष्मापालप्रवर्तिताभयदानाभिधानजीवातुसंजीवितनानाजीवप्रदत्ताशीर्वादमाहात्म्यकल्पावधिस्थायिविशदयशःशरीरेण निरवद्यचातुर्विद्यनिर्माणकब्रह्मणाश्रीहेमचन्द्रसूरिणा जगत्प्रसिद्धश्रीसिद्धसेनदिवाकरविरचितद्वात्रिंशद्वात्रिंशिकानुसारि श्रीवर्धमान जनस्तुतिरूपमयोगव्यवच्छेदान्ययोगव्यवच्छे दाभिधानं द्वात्रिंशिकाद्वितयं विद्वज्जनमनस्तत्त्वावबोधनिवन्धनं विदधे। तत्र च प्रथमद्वात्रिंशिकायाः सुखोन्नेयत्वाद् तद्व्याख्यानमुपेक्ष्य द्वितीयस्यास्तस्या निःशेपदुर्वादिपरिपदधिक्षेपदक्षायाः कतिपयपदार्थविवरणकरणेन स्वस्मृतिबीजप्रबोधविधिविधीयते । तस्याश्चेदमादिकाव्यम् हे सरस्वती माता! तुम मेरे हृदयमें निवास करो, जिससे मैं आप्तस्तुति (द्वात्रिंशिका) की व्याख्या (स्याद्वादमंजरी) शीघ्र ही प्रारम्भ कर सकूँ । अथवा नहीं; मैं भूल गया, क्योंकि 'श्रीउदयप्रभ'रचनासे मनोहर शाश्वत सरस्वतीका मन्त्र तो दिन-रात मेरे होठोंमें स्फुरित हो ही रहा है। (उदयप्रभ टीकाकारके गुरुका नाम है । यहां टीकाकार गुरुभक्तिके वश होकर कहते हैं कि गुरुस्मरणके प्रभावसे सरस्वती माता स्वयं मेरे हृदयमें विराजमान है, अतएव सरस्वती मातासे प्रार्थना करनेको आवश्यकता ही नहीं रहती।) ॥४॥ अवतरणिका अर्थ-इस लोकमें दुषमा आरा ( पंचमकाल; देखिये परिशिष्ट [क]) को रात्रिके अन्धकारको दूर करनेके लिए सूर्यके समान, तथा पृथ्वीतलपर उतरकर आयी हुई अमृत-नदीके समान धर्मोपदेश द्वारा परम आहत बनाये हुए कुमारपाल राजाको अभयदानरूप जीवनौषत्रिसे जीवनको प्राप्त करनेवाले प्राणियोंके आशीर्वादके माहात्म्यसे कल्पकालपर्यन्त स्थायी निर्मल यशरूपी शरीरको धारण करनेवाले, तथा चार विद्याओं ( लक्षण, आगम, साहित्य, तर्क ) की निर्दोष रचना करनेके लिए ब्रह्माके समान. ऐसे श्रीहेमचन्द्रसूरिने, जगत्प्रसिद्ध श्रीसिद्धसेनदिवाकरद्वारा रचित द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका का अनुसरण करनेवाली श्रीवर्धमान जिनेन्द्रको स्तुतिरूप, विद्वानोंको तत्त्वज्ञान प्रदान करनेवाली अयोगव्यवच्छेद तथा अन्ययोगव्यवच्छेद नामकी दो बत्तीसियोंको रचना की है। तात्पर्य यह कि सिद्धसेनदिवाकरकी बत्तीस बत्तीसियोंकी रचनाका अनुसरण करके हेमचन्द्रसूरिने भी दो बत्तीसियाँ बनायी हैं। अयोगव्यवच्छेद नामक बत्तीसीमें जैनसिद्धान्तोंकी स्थापना करके 'स्वपक्ष-साधन' तथा अन्ययोगव्यवच्छेदिकामें परवादियोंके मतोंका खण्डन करते हुए 'परपक्षदूषण'का प्रदर्शन किया गया है। यहाँ टीकाकार मल्लिपण अयोगव्यवच्छेदिका नामक पहली बत्तीसीके सरल होनेके कारण उसकी व्याख्याकी उपेक्षा करके, समस्त दुर्वादियोंकी सभाको परास्त करने में समर्थ अन्ययोगव्यवच्छेदिका नामकी दूसरी बत्तीसीके कतिपय पदार्थोका विस्तृत विवरण कर अपनी स्मृतिको प्रबुद्ध करते हैं। दूसरी बत्तीसीका यह प्रथम श्लोक है १.विशेषणसङ्गतैवकारोऽयोगव्यवच्छेदबोधकः, यथा शङ्खः पाण्डुर एवेति । अयोगव्यवच्छेदस्य लक्षणं चोद्देश्यतावच्छेदकसमानाविकरणाभावाप्रतियोगित्वम् । २.विशेष्यङ्गतवकारोऽन्ययोगव्यवच्छेदबोधकः, यथा पार्थ एव धनुर्धरः । अन्ययोगव्यवच्छेदो नाम विशेष्यभिन्नतादात्म्यादिव्यवच्छेदः ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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