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________________ [ ११ ] सम्भावित नहीं उस ज्ञानदशाकी सिद्धि है जिसमें ऐसा तू, सर्वसंगत्याग दशा अल्पकाल भी भोगेगा तो सम्पूर्ण जगत प्रसंगमें वर्तते हुए भी तुझे वाधा नहीं होगी, ऐसा होते हुए भी सर्वज्ञने निवृत्तिको ही प्रशस्त कहा है; कारण कि ऋषभादि सर्व परमपुरुपोंने अन्तमें ऐसा ही किया है।" (हा. नों. १।१०२ क्र.४५ ) "राग, द्वेष और अज्ञानका आत्यंतिक अभाव करके जो सहज शुद्ध आत्मस्वरूपमें स्थित हुए वही स्वरूप हमारे स्मरण, ध्यान और प्राप्त करने योग्य स्थान है।" ( हा. नों. २ । ३ क्र.१) "सर्व परभाव और विभावसे व्यावृत्त, निज स्वभावके भान सहित, अवधूतवत् विदेहीवत् जिनकल्पीवत् विचरते पुरुष भगवानके स्वरूपका ध्यान करते हैं ।" (हा. नों. ३।३७ क्र. १४) "मैं एक हूँ, असंग हूँ, सर्व परभावसे मुक्त हूँ, असंख्यप्रदेशात्मक निजअवगाहनाप्रमाण हूँ। अजन्म, अजर, अमर, शाश्वत हूँ। स्वपर्यायपरिणामी समयात्मक हूँ। शुद्ध चैतन्यमात्र निर्विकल्प दृष्टा हूँ। (हा. नों. ३ । २६ क्र० ११) "मैं परमशुद्ध, अखंड चिधातु हैं, अचिद्धातुके संयोगरसका यह आभास तो देखो! आश्चर्यवत, आश्चर्यरूप, घटना है। कुछ भी अन्य विकल्पका अवकाश नहीं, स्थिति भी ऐसी ही है।" (हा. नों. २। ३७ क्र. १७) इसप्रकार अपनी आत्मदशाको संभालकर वे बढ़ते रहे। आपने सं० १९५६ में व्यवहार सम्बन्धी सर्व उपाधिसे निवत्ति लेकर सर्वसंगपरित्यागरूप दीक्षा धारण करनेकी अपनी माताजीसे आज्ञा भी ले ली थी। परन्तु उनका शारीरिक स्वास्थ्य दिन-पर-दिन बिगड़ता गया। उदय बलवान है । शरीरको रोगने आ घेरा । अनेक उपचार करनेपर भी स्वास्थ्य ठीक नहीं हुआ। इसी विवशता में उनके हृदयकी गंभीरता बोल उठी : "अत्यन्त त्वरासे प्रवास पूरा करना था, वहाँ बीचमें सेहराका मरुस्थल आ गया । सिर पर बहुत बोझ था उसे आत्मवीर्यसे जिसप्रकार अल्पकालमें सहन कर लिया जाय उस प्रकार प्रयत्न करते हुए, पैरोंने निकाचित उदयरूप थकान ग्रहण की। जो स्वरूप है वह अन्यथा नहीं होता यही अद्भुत आश्चर्य है । अव्याबाध स्थिरता है।" अन्त समय स्थिति और भी गिरती गई । शरीरका वजन १३२ पौंडसे घटकर मात्र ४३ पौंड रह गया। शायद उनका अधिक जीवन कालको पसन्द नहीं था। देहत्यागके पहले दिन शामको आपने अपने छोटेभाई मनसुखराम आदिसे कहा-"तुम निश्चित रहना, यह आत्मा शाश्वत है। अवश्य विशेष उत्तम गतिको प्राप्त होगा, तुम शान्ति और समाधिरूपसे प्रवर्तना। जो रत्नमय ज्ञानवाणी इस देहके द्वारा कही जा सकती थी, वह कहनेका समय नहीं । तुम पुरुषार्थ करना।" रात्रिको २।। बजे वे फिर बोले-'निश्चित रहना, भाईका समाधिमरण हैं। और अवसानके दिन प्रातः पौने नौ बजे कहा : 'मनसुख, दुखी न होना, मैं अपने आत्मस्वरूपमें लीन होता हूँ।' और अन्तमें उस दिन सं० १९५७ चैत्र वदी ५ (गुज०) मंगलवारको दोपहरके दो बजे राजकोटमें उनका आत्मा इस नश्वर देहको छोड़कर चला गया। भारतभूमि एक अनुपम तत्त्वज्ञानीसन्तको खो बैठी। उनके देहावसानके समाचार सुनकर मुमुक्षुओंके चित्त उदास हो गये। वसंत मुरझा गया। निस्संदेह श्रीमद्जी विश्वकी एक महान विभूति थे। उनका वीतरागमार्ग-प्रकाशक अनुपम वचनामृत आज भी जीवनको अमरत्व प्रदान करनेके लिए विद्यमान है । धर्मजिज्ञासु बन्धु उनके वचनोंका लाभ उठावें । श्री लघुराजस्वामी (प्रभुश्री ) ने उनके प्रति अपना हृदयोद्गार इन शब्दोंमें प्रगट किया है: "अपरमार्थमें परमार्थके दृढ़ आग्रहरूप अनेक सूक्ष्म भूलभुलैयाँके प्रसंग दिखाकर इस दासके दोष दूर करने में १. 'भीमद् राजचन्द्र' (गुज.) पत्र क्र० ९५१ ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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