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स्याद्वादमंजरीमें निदिष्ट ग्रन्थ और ग्रन्थकार ( २)
१ जैन--
भद्रबाहु-दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोंके अनुसार भद्रबाहु श्रुतकेवली माने जाते हैं। भद्रबाहु महावीर-निर्वाणके १७० वर्ष बाद मोक्ष गये। उन्होंने आचारांग, सूत्रकृतांग, सूर्यप्रज्ञप्ति, उत्तराध्ययन, आवश्यक, दशवकालिक, दशाश्रुतंस्कंध, कल्पसूत्र, व्यवहार और ऋषिभाषित सूत्रोंपर नियुक्तियोंकी रचना की है। दिगम्बर परम्परामें दो भद्रबाहु हुए हैं। दूसरे भद्रबाह मौर्य चन्द्रगुप्तके समकालीन थे। प्रथम भद्रबाहुका समय ईसाके पूर्व चौथी शताब्दि माना जाता है।
आचारांग-द्वादशांग सूत्रोंमें सर्व प्राचीन । स्थानांग-द्वादशांगका तीसरा सूत्र ।
उत्तराध्ययन-उत्तराध्ययन चार मूल सूत्रोंमें प्रथम सूत्र । इसमें छत्तीस अध्ययन हैं। इनमें केशीगौतमका संवाद, राजीमतीका नेमिनाथको उपदेश करना, कपिलका जैन मुनिका शिष्यत्व, कर्मसे जाति आदि महत्त्वपूर्ण विषयोंका वर्णन है।
आवश्यक-मूल सूत्रोंमें दूसरा सूत्र । इसमें सामायिक, स्तव, वन्दन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान इन छह आवश्यकोंका वर्णन है । आवश्यक सूत्र बहुत प्राचीन है।
निशिथचूर्णि-यह अनेक चूणियोंके रचयिता जिनदासगणि महत्तरकी कृति है। समय ई.स. ६७६ के लगभग ।
वाचकमुख्य-उमास्वाति ही वाचकमुख्यके नामसे कहे जाते हैं। इन्होंने तत्त्वार्थाधिगमसूत्र और उसके ऊपर भाष्य लिखा है । उमास्वाति प्रशमरति, श्रावकप्रज्ञति आदि ग्रंथोंके भी कर्ता है। उमास्वातिको दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदाय पज्य दृष्टिसे देखते हैं। दिगम्बर इन्हें उमास्वामि कहते हैं, और कुन्दकुन्द आचार्यके शिष्य अथवा वंशज मानते हैं। दिगम्बरोंके अनुसार तत्त्वार्थभाष्य उमास्वामिका बनाया हुआ नहीं माना जाता। तत्त्वार्थाधिगम सूत्रोंमें दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्पराके अनुसार पाठभेद पाया जाता है। इन सूत्रोंपर दिगम्बर आचार्य पूज्यपाद, अकलंक, विद्यानन्द आदि तथा श्वेताम्बर आचार्य सिद्धसेनगणि, हरिभद्र, यशोविजय आदिने टीकायें लिखी हैं । समय ईसवी सन्को प्रथम शताब्दि ।
सिद्धसेन दिवाकर-श्वेताम्बर सम्प्रदायके महान् ताकिक और प्रतिभाशाली विद्वान । सिद्धसेनने प्राकृत भाषामें सन्मतितर्क तथा संस्कृतमें न्यायावतार और द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिकाओंकी रचना की है । सन्मतितर्कपर अभयदेवने, और न्यायावतारपर सिद्धर्षिने टीका लिखी है। सिद्धसेन अपने समयके महान स्वतंत्र विचारक माने जाते थे। इन्होंने श्वेताम्बर आगमकी नयवाद और उपयोगवादको मूल मान्यताओंका विरोध कर अपने स्वतंत्र मतका स्थापन किया है। सिद्धसेनने वेद, तथा न्याय, वैशेषिक, बौद्ध और सांख्य दर्शनोंपर द्वात्रिशिकाओंकी रचना की है । पं. सुखलालजी सिद्धसेनका समय ईसवी सन्की चौथी शताब्दि मानते हैं।
समंतभद्र-समंतभद्रका नाम दिगम्बर सम्प्रदायमें सुप्रसिद्ध है। सिद्धसेन श्वेताम्बर सम्प्रदायमें और समन्तभद्र दिगम्बर सम्प्रदायमें आदिस्तुतिकार गिने जाते हैं। समन्तभद्रने रत्नकरण्डश्रावकाचार, आप्तमीमांसा, बृहत्स्वयंभूस्तोत्र आदि ग्रन्थोंको रचना की है। सिद्धसेन और समंतभद्रकी कृतियोंमें कई श्लोक समान रूपसे पाये जाते हैं। प्रायः सिद्धसेन और समंतभद्र दोनों समकालीन हैं। प्रो. के. बी. पाठकके अनुसार समंतभद्र ईसाकी आठवीं शताब्दिके पूर्वार्धमें, तथा पं. जगलकिशोरजीके मतमें समंतभद्व सिद्धसेनके पूर्ववर्ती हैं, और ईसाकी तीसरी शताब्दिमें हुए हैं।