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विविध परिशिष्ट (ज) श्लो १ पृ० ३ पं० १६ आजीविक
भारतके अनेक सम्प्रदायोंकी तरह आजीविक सम्प्रदायका नाम भी आज निश्शेष हो चुका है। आजीविक मतके माननेवालोंके क्या सिद्धांत थे, इस मतके कौन-कौन मुख्य आचार्य थे, उन्होंने किन-किन ग्रंथोंका निर्माण किया था, आदिके विषय प्रामाणिक ज्ञान प्राप्त करने के लिये आज कोई भी साधन नहीं हैं । इसलिये आजीविक सम्प्रदायके विपयमें जो कुछ थोड़े बहुत सत्य अथवा अर्धसत्य रूपमें जैन और बौद्ध शास्त्रोंमें उल्लेख मिलते है, हमे उन्हीसे सन्तोप करना पड़ता है। ई० स० पूर्व ३९१ में अशोकका आजीविकोंको एक गुफा प्रदान करने का उल्लेख मिलता है । ईसाकी ६ ठी शताब्दीके विद्वान वराहमिहिर अपने बृहज्जातकमें आजीविकोंको एकदण्डी कहकर उल्लेख करते हैं । ई० स० ५७६ में शीलांक, ई० स०५९० में हलायध आजीविक और दिगम्बरं को, और मणिभद्र आजीविक और बौद्धोंको पर्यायवाची मानकर उल्लेख करते हैं, तथा ई० स० १२३५ में रानरा नागके चोल राजाके शिलालेखोंपरसे आजीविकोंके ऊपर कर लगानेका अनुमान किया जाता है। जैन और बौद्ध साहित्यमें नंदवच्छ, किससंकिच्च और मवखलि गोशाल इन तीन आजीविक मतके नायकोंका कथन आता है । मक्खलिगोशाल बुद्ध और महावीरके समकालीन प्रतिस्पर्षियोंमें से माने जाते है । भगवती आदि जैन यागमोंके अनुशार, गोशाल महावीरकी तपस्याके समय महावीरके शिष्य बनकर छह वर्ष तक उनके साथ रहे, और वादमे महावीरके प्रतिस्पर्षि बनकर आजीविक सम्प्रदायके नेता बने । गोशालक भाग्यवादी थे। इनके मतमें सम्पूर्ण जीव अवश, दुर्बल, निर्वीय है, और भवितव्यताके वशमें हैं । जीवोंके संक्लेशका सोई हेतु नहीं है, विना हेतु और बिना प्रत्ययके प्राणी संक्लेशको प्राप्त होते हैं । गोशालक आत्माको, पुनर्जन्मको और जीवके मुक्तिसे लौटनेको स्वीकार करते थे। उनके मतमें प्रत्येक पदार्थ में जीव विद्यमान हैं । गोशालकने जीवोंको एकेन्द्रिय आदिके विभागमें विभक्त किया था, वे जीव हिंसा न करनेपर जोर देते थे, मुख्य योनि चौदह लाख मानते थे। भिक्षाके वास्ते पात्र नहीं रखते थे, हाथमें भोजन करते थे, मद्य, मांस, कंदमूल और उद्दिष्ट भोजनके त्यागी होते थे, और नग्न रहा करते थे। आजीविक लोगोंका दूसरा नाम तेरासिय (राशिक ) भी है। ये लोग प्रत्येक वस्तुको सत्, असत् और सदसत् तीन तरहसे कहते थे, इसलिये ये तेरासिय कहे जाने लगे। श्लोक १५ पृ० पं० संवर-प्रतिसंवर
क्षेमेन्द्रने सांख्यतत्त्वविवेचनमें संवर ( संचर) और प्रतिसंवर (प्रतिसंचर) का लक्षण निम्न प्रकारसे कियाहै - संचर
साम्यवस्थागुणानां या प्रकृति सा स्वभावतः । कालक्षोभेण वैषम्यात् क्षेत्रे परयुते पुरा ।। बुद्धिस्ततश्चाहंकारस्त्रिविधोऽपि व्यजायत । तन्मात्राणीन्द्रियाणि महाभूतानि च क्रमात् ।। एवं क्रमेणवोत्पत्तिः संचरः परिकीर्तितः।
१. प्रोफेसर होर्नेल ईसाकी छठी शताब्दीतक आजीविकदर्शनके स्वतंत्र आचार्योंके होनेका अनुमान करते हैं। २. प्रोफेसर याकोबी और प्रोफेसर बरुआ आदि विद्वानोंके अनुसार महावीरके जैनधर्मके सिद्धान्तोंके ऊपर
गोशालके सिद्धान्तोंका प्रभाव पड़ा है। विशेषके लिये देखिये प्रोफेसर बरुआकी Pre-Buddhist Indian