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________________ ३५० श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां चार्वाकों के सिद्धांत चार्वाक आत्माको नहीं मानते । इनके मतमें चैतन्य विशिष्ट देहको ही जात्मा माना गया है । जिस समय भौतिक शरीरका नाश होता है, उस समय आत्माका भी नाश हो जाता है, अतएव कोई परलोक जानेवाली आत्मा भिन्न वस्तु नहीं है। इसलिये चार्वाकोंका सिद्धांत है कि जब तक जीना है, तब तक खूब आनंदके साथ जोवनको यापन करना चाहिये, क्योंकि मरनेके बाद फिरसे जीवका जन्म नहीं होता। चार्वाक लोग धर्म, अधर्म और पुण्य, पापको नहीं मानते । इनके मतमें एक प्रत्यक्ष ही प्रमाण है। इसलिये इनके मतमें संसारसे बाह्य कोई स्वर्ग, नरक, मोक्ष और ईश्वर जैसी वस्तु नहीं है । वास्तवमें कांटा लग जाने आदिसे उत्पन्न होनेवाला दुख हो नरक है, लोकमें प्रसिद्ध राजा ही ईश्वर है, देहका छोड़ना ही मोक्ष है, और स्त्रीका आलिंगन करना ही सबसे बड़ा पुरुषार्थ है। चार्वाक वेदको नहीं मानते, तथा याज्ञिक हिंसाका और श्राद्ध आदि कर्मोंका घोर विरोध करते हैं।' चार्वाक साहित्य चार्वाक साहित्यका कोई भी ग्रंथ उपलब्ध नहीं है। इसलिये चार्वाकोंके सिद्धान्तोंके प्रामाणिक ज्ञान प्राप्त करनेका कोई साधन नहीं है । आजीविक आदि सम्प्रदायोंकी तरह चार्वाक मतका थोड़ा बहुत ज्ञान जैन, बौद्ध और ब्राह्मणोंके ग्रंथोंसे होता है । चार्वाक सिद्धांतोंके आद्य प्रणेता बृहस्पति कहे जाते हैं। गुणरत्न और जयन्तभट्ट दो चार्वाकसूत्रों का उल्लेख करते हैं, इससे जान पड़ता है कि बृहस्पतिने चार्वाकशास्त्रकी रचना सूत्ररूपमें को थी। शान्तरक्षित तत्वसंग्रहमें चार्वाक सम्प्रदायके प्ररूपक कम्बलाश्वतरके एक सत्रका उल्लेख करते हैं । २ विद्वानोंका कहना है कि बौद्ध सूत्रोंमें वणित अजितकेशकम्बली और कम्बलाश्वतर दोनों एक ही व्यक्ति थे। इनका समय ईसवी सन पूर्व ५५०-५०. बताया जाता है। चार्वाकके सिद्धांतोंका संक्षिप्त वर्णन जयन्तको न्यायमंजरी, माधवका सर्वदर्शनसंग्रह, गुणरत्नकी षड्दर्शनसमुच्चय टीका और महाभारत आदि ग्रंथों में पाया जाता है। १. लोकायत दर्शनकी देनके लिए देखिये जगदीशचन्द्र जैन, भारतीय तत्त्व चिन्तन, पृ० ५९-६१ । २. कायादेव ततो ज्ञानं प्राणापानाधधिष्ठितात् । युक्तं जायत इत्येतत्कम्बलाश्वतरोदितम् ।। तथा च सूत्रम्-कायादेवेति । तत्त्वसंग्रह श्लोक १८६४ पंजिका । ३. तत्त्वसंग्रह, अंग्रेजी भूमिका ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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