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________________ ३४२ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां मीमांसक सर्वज्ञको भी नहीं मानते। मीमांसकोंका कहना है कि सर्वज्ञकी प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंसे उपलब्धि नहीं होती, इसलिये उसका अभाव ही मानना चाहिये। तथा मनुष्यकी प्रज्ञा, मेधा आदिमें थोड़ा बहुत ही अतिशय पाया जा सकता है। जिस प्रकार व्याकरणशास्त्रका प्रकृष्ट पंडित ज्योतिषशास्त्रका ज्ञाता नहीं कहा जा सकता, जिस प्रकार वेद, इतिहास आदिका विद्वान् स्वर्गों के देवताओंको प्रत्यक्षसे जाननेमें पंडित नहीं कहा जा सकता, जिस प्रकार आकाशमें दश योजन कूदनेवाला मनुष्य · सैकड़ों प्रयत्न करनेपर भी एक हजार योजन नहीं कूद सकता, और जिस प्रकार कर्ण इन्द्रियमें अतिशय होनेपर भी उससे रूपका ज्ञान नहीं हो सकता, उसी तरह प्रकृष्टसे प्रकृष्ट ज्ञानी भी अपने विषयका अतिक्रमण न करके ही इन्द्रियजन्य पदार्थों का ही ज्ञान कर सकता है। कोई भी प्राणी संपूर्ण लोकोंके संपूर्ण समयोंके संपूर्ण पदार्थों का ज्ञाता नहीं हो सकता। अतएव कोई अतींद्रिय पदार्थों के साक्षात्कार करनेवाला सर्वज्ञ नहीं है।' ४. प्रमाणवाद-मीमांसक पहले नहीं जाने हुए पदार्थों को जाननेको प्रमाण मानते हैं। प्रभाकर मतके अनुयायो प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द, उपमान, अर्थापत्ति ये पांच, और कुमारिल भट्ट इन पांच प्रमाणोंमें अभावको मिलाकर छह प्रमाण स्वीकार करते हैं । मीमांसक स्मृतिज्ञानके अतिरिक्त सम्पूर्ण ज्ञानोंको स्वतः प्रमाण मानते हैं। मोमासकोंका कहना है कि ज्ञानकी उत्पत्तिके समय ही हमें पदार्थों का ज्ञान (ज्ञप्ति ) होता है। अतएव ज्ञान अपनी उत्पत्तिमें और पदार्थों के प्रकाश करनेमें किसी दूसरेकी अपेक्षा नहीं रखता। जिस समय हमें कोई ज्ञान होता है, वह ज्ञान स्वतः ही प्रमाण होता है, तथा ज्ञानके स्वतः प्रमाण होनेसे ही हमारी पदार्थों में प्रवृत्ति होती है । इसोलिये ज्ञानके उत्पन्न होते ही ज्ञानके प्रामाण्यका पता लग जाता है। यदि ऐसा न हो तो हमारी पदार्थोंमें प्रवृत्ति न होनी चाहिये । परन्तु अप्रामाण्य ज्ञानमें यह बात नहीं होती। कारण कि मिथ्या ज्ञानमें हमारी इन्द्रियों आदिमें दोष होनेके कारण उत्तरकालमें होनेवाले बाधक ज्ञानसे ही हमारे ज्ञानका अप्रामाण्य सिद्ध होता है । अतएव मीमांसकोंके मतमें स्मृति ज्ञानको छोड़कर प्रत्येक ज्ञान, जब तक कि वह उत्तरकालमें किसी बाधक ज्ञानसे अप्रमाण रूप सिद्ध नहीं होता, स्वतः प्रमाण कहा जाता है, और उत्तरकालमें वही ज्ञान प्रमाण सिद्ध होनेपर परतः कहा जाता है। नैयायिक मीमांसकोंके स्वतःप्रामाण्यवादका विरोध करते हैं, प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनोंको परतः मानते हैं । सांख्य प्रामाण्य और अप्रामाण्य को स्वतः, जैन दोनोंको कथंचित स्वतः और कथंचित् परतः, तथा बौद्ध अप्रामाण्य ज्ञानको स्वतः और प्रामाण्यको परतः मानते हैं। आत्मा-मीमांसक लोग आत्माके अस्तित्वको स्वीकार करते हैं। इनके मतमें आत्माको शरीर, इन्द्रिय और बुद्धिसे भिन्न मानकर आत्मबहुत्ववादके सिद्धांतको स्वीकार किया गया है । मीमांसक विद्वान् १. संभवतः मीमांसक लोग ईश्वर और सर्वज्ञका सद्भाव न माननेके कारण 'लोकायत' 'नास्तिक' आदि नामोंसे कहे जाने लगे थे । कुमारिल भट्टने इस आक्षेपको दूर करनेके लिये श्लोकवातिककी रचना कर उसमें 'आत्मवाद' नामक भिन्न प्रकरण लिखा है प्रायेणैव हि मीमांसा लोके लोकायतीकृता। तामास्तिकपथे कर्तुमयं यत्नः कृतो मयाः ॥ श्लोकवार्तिक पू० ४ श्लोक १० । तथा-इत्याह नास्तिक्यनिराकरिष्णु रात्मास्तितां भाष्यकृदन युक्त्या । दृढत्वमेतद्विषयश्च बोधः प्रायाति वेदान्तनिषेवणेन ॥ पृ०७२८ श्लोक १४८ । २. परापेक्षं प्रमाणत्वं नात्मानं लभते क्वचित् । मूलोच्छेदकरं पक्षं को हि नामाध्यवस्यति ॥ यदि हि सर्वमेव ज्ञानं स्वविषयतथात्वावधारणे स्वयमसमर्थ विज्ञानान्तरमपेक्षेत ततः कारणगुणसंवादार्थक्रि. याज्ञानान्यपि स्वविषयभूतगुणाद्यवधारणे परमपेक्षेरन, अपरमपि तथेति न कश्चिदर्थो जन्मसहस्रेणाप्यध्यवसीयेतेति प्रामाण्यमेवोत्सीदेत् । शास्त्रदीपिका पृ० २२ ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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