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स्याद्वादमञ्जरी (परिशिष्ट)
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शब्दके अर्थका ज्ञान होता है। यदि शब्द नित्य न होता तो हमारे पितामह आदिसे निश्चित किये हुए शब्दोंके संकेतसे हमें उसी अर्थका ज्ञान न होता, इसलिये शब्दको नित्य ही मानना चाहिये। यदि कहो कि शब्दको नित्य स्वीकार करनेपर सव लोगोंको हमेशा शब्द सुनाई देने चाहिये, तो यह ठीक नहीं। क्योंकि जिस समय प्रत्येक वर्ण संबंधी तालु, ओष्ठ आदिका वायुसे संबंध होता है, उसी समय शब्दकी अभिव्यक्ति होती है । जिस समय मनुष्य यत्नसे किसी शब्दका उच्चारण करता है, उस समय वायु नाभिसे उठकर, उरमें विस्तीर्ण हो, कण्ठमें फैल, मस्तकमें लग वापिस आती हुई नाना प्रकारके शब्दोंकी अभिव्यक्ति करती है, इसलिये शब्दकी व्यंजक वायुमें ही उत्पत्ति और विनाश होता है । अतएव शब्दको नित्य मानना चाहिये।
३. ईश्वर और सर्वज्ञ-मीमांसक ईश्वरको सृष्टिकर्ता और संहारकर्ता नहीं मानते। उनके मतमें अपूर्व ही यज्ञ आदिका फल देनेवाला है, इसलिये ईश्वरको जगत्का कर्ता मानने की कोई आवश्यकता नहीं रहती। वेदोंको बनाने के लिये भी ईश्वरकी आवश्यकता नहीं, क्योंकि वेद अपौरुषेय होनेसे स्वतः प्रमाण है। मीमांसकोंका कथन है कि यदि ईश्वर शरीर रहित होकर सृष्टिका सर्जन करता है तो अशरीरी ईश्वरके जगत्के सर्जन करनेकी इच्छाका प्रादुर्भाव नहीं हो सकता। यदि ईश्वर शरीर सहित होकर जगत्को बनाता है तो ईश्वरके शरीरका भी कोई दूसरा कर्ता मानना चाहिये। परमाणुओंको ईश्वरका शरीर मानना भी ठीक नहीं। क्योंकि बिना प्रयत्नके परमाणुओंमें क्रिया नहीं हो सकती । तथा, ईश्वरके प्रयत्नको नित्य माननेसे परमाणुओंमें सदा ही क्रिया होती रहनी चाहिये । ईश्वरको धर्म-अधर्मका अधिष्ठाता भी नहीं मान सकते । क्योंकि संयोग अथवा समवाय किसी भी संबंधसे धर्म और अधर्मका ईश्वरके साथ संबंध नहीं हो सकता। तथा, यदि ईश्वर सृष्टिका कर्ता है, तो वह दुखी जगत्की क्यों रचना करता है ? जीवोंके भूत कर्मों के कारण ईश्वर द्वारा दुखी जीवोंकी सृष्टि मानना भी ठीक नहीं । क्योंकि जिस समय ईश्वरने सृष्टि की, उस समय कोई भी जीव मौजूद नहीं था। दयासे प्रेरित होकर भी ईश्वरकी सृष्टि रचनाको नहीं मान सकते, क्योंकि सृष्टिको बनानेके समय प्राणियोंका अभाव था। फिर भी यदि अनुकंपाके कारण जगत्का सर्जन माना जाय, तो ईश्वरको सुखी प्राणियोंको ही जन्म देना चाहिये था। क्रीड़ाके कारण भी सृष्टिका निर्माण नहीं मान सकते । क्योंकि ईश्वर सर्वथा सुखी है, उसे क्रीड़ा करनेकी आवश्यकता नहीं है। ईश्वर सृष्टिकी रचना करके फिर उसका संहार क्यों करता है ? इसका कारण भी समझमें नहीं आता। इसलिये बीजवृक्षकी तरह अनादि कालसे सृष्टिकी परंपरा माननी चाहिये । वास्तवमें नित्य और अपौरुषेय वेदोंके वाक्य ही प्रमाण हैं। कोई अनादि ईश्वर न सृष्टिका निर्माण और न सृष्टिका संहार करता है। १. नैयायिक 'सकारणक होनेसे, 'ऐन्द्रियक होनेसे' और 'विनाशी होनेसे' शब्दको अनित्य मानते हैं। देखिये
न्यायसूत्र २-२-१३ । न्यायदर्शन में 'वीचीतरंग' न्यायसे और 'कदम्बकोरक' न्यायसे शब्दकी उत्पत्ति ____ मानी गई है । वैयाकरण अकार आदि वर्णको नित्य मानते है-वर्णो नित्यः ध्वन्यन्यशब्दत्वात् स्फोटवत् ।
सर्वज्ञवन्निषेध्या च स्रष्टुः सद्भावकल्पना । न च धर्मादृते तस्य भवेल्लोकाद्विशिष्टता ॥ न चाऽननुष्ठितो धर्मो नाऽनुष्ठानमृतेः मतेः । न च वेदादृते सा स्याद्वेदोन च पदादिभिः॥
तस्मात् प्रागपि सर्वेऽमी स्रष्टुरासन् पदादयः । न हि स्रष्टुरस्मदादिभ्योऽतिशयः सहजः संभवति पुरुषत्वादस्मदादिवदेव । अतो धर्मनिमित्तो वक्तव्यः । नचाऽननुष्ठितो धर्मः कार्य करोति । न चाऽसतिज्ञानेऽनुष्ठानं संभवति । न च वेदादते ज्ञानं । न च वेदः पदपदार्थसंबंधैविना शक्नोति अर्थमवबोधयितुं । अतः प्रागपि सृष्टेः सन्त्येव पदादयः । यथाह मनु:
सर्वेषां च स नामानि कर्माणि च पृथक् पृथक् । वेदशब्देश्य एवादी पृथक् संस्थाश्च निर्ममे ।।
श्लोकवातिक संबंधाक्षेपपरिहार श्लोक ११४-११६ न्यायरत्नाकर टीका।
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