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________________ स्याद्वादमञ्जरी (परिशिष्ट) ३२५ आदि देवताओंका मिला। ये इन्द्र, वरुण आदि देवतागण, जिस तरह कोई बढ़ई अथवा सुनार किसी नूतन पदार्थकी सृष्टि करता है, उसी तरह एक साथ अथवा एक-एक करके जगतकी सृष्टि करते है। तत्पश्चात् वेदोंमें जन, सृज, अण्ड, गर्भ, रेतस आदि शब्दोंका प्रयोग मिलता है, और यहाँ देवताओंको सृष्टिसर्जक और शासक कहकर पिता रूपसे उल्लेख किया गया है। आगे चलकर सृष्टिको देवताओंकी माया कह कर सृष्टिको मनुष्यबुद्धिके बाह्य बताया है। इन्द्र मायाके द्वारा सृष्टिकी रचना करता है, और अपने शरीरसे ही अपने माता-पिताका निर्माण करता है। तत्पश्चात् वैदिक ऋषि ईश्वरको निश्चित रूप देनेके लिये सत्, असत् तथा जीवन, मृत्यु आदि परस्पर विरोधी शब्दोंसे ईश्वरका वर्णन करते हैं। (२) ब्राह्मणोंमें भी ईश्वर संबंधी अनेक मनोरंजक कल्पनायें पायी जाती हैं। (अ) प्रजापतिने एकसे अनेक होनेकी इच्छा की, इसके लिये प्रजापतिने तप किया और तीन लोकोंकी सृष्टि की। (ब) सृष्टिके पहले पृथिवी. आकाश आदि किसी पदार्थका भी अस्तित्व नहीं था। प्रजापतिने एकसे अनेक होनेके लिये तपश्चरण किया। तपश्चरणके बलसे धूम, अग्नि, प्रकाश, ज्वाला, किरणें और वाष्पकी उत्पत्ति हुई, और बादमें ये सब पदार्थ बादल की तरह जमकर घनीभूत हो गये। इससे प्रजापतिका लिंग फट गया, और उसमेंसे समुद्र फूट निकला। प्रजापति रुदन करने लगे, क्योंकि अब उनके ठहरनेकी कोई जगह नहीं रह गई थी। प्रजापतिकी आँखोंके अश्रुबिन्दु समुद्रके जलमें गिरे और ये पृथिवीके रूपमें परिणत हो गये । तत्पश्चात् प्रजापतिने पृथिवीको साफ किया और उसमें वायुमंडल और आकाशकी उत्पत्ति हुई।' (स) प्रजापतिने एकसे अनेक होनेके लिये कठोर तपश्चरण किया। उससे ब्राह्मन् ( वेद ) और जलको उत्पत्ति हुई। प्रजापतिने त्रयो विद्याको लेकर जलमें प्रवेश किया, इससे अंडा उत्पन्न हुआ। प्रजापतिने अंडेका स्पर्श किया और फिर अग्नि, वाष्प, मृत्तिका आदिकी उत्पत्ति हुई। (३) उपनिषद्-साहित्यमें भी सृष्टि और सृष्टिकर्ताके विषयमें विविध सिद्धांतोंका प्रतिपादन किया गया है। (अ) केवल बृहदारण्यक उपनिषद में कई कल्पनायें मिलती है। यहां असत, मृत्यु और क्षुधाको एक मानकर मृत्युसे जीवनको, तथा मृत्युसे जल, पृथिवी, अग्नि, वायु, लोक आदिकी सृष्टि स्वीकार की गई है। दूसरे स्थलपर आत्मा अथवा पुरुषसे सृष्टि की उत्पत्ति मानकर कहा गया है कि जिस समय आत्मामें संवेदन शक्तिका आविर्भाव हुआ, उस समय आत्मा अपनेको अकेले पाकर भयभीत हो उठा। आत्मा पुरुष और स्त्री दो भागोंमें विभक्त हुआ। स्त्रीने देखा कि पुरुष उसका सर्जक है और साथ ही उसका प्रेमी भी है। स्त्रीने गौका रूप धारण कर लिया। पुरुषने बैलका रूप धारण किया। इसी प्रकार बकरी, बकरा आदि युगलोंको उत्तरोत्तर सृष्टि होती गई। अन्यत्र ब्रह्मसे सृष्टिकी रचना मानी गई है। यहां कहा गया है कि सृष्टिके पहले एक ब्रह्म ही था। ब्रह्मने अपनेको पर्याप्त शक्तिशाली न देखकर क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र जातियोंकी और सत्यकी सृष्टि की । ( ब ) छान्दोग्य उपनिषद्- असत्को अंडा बताकर अंडेके फूटनेसे पृथिवी, आकाश, पर्वत आदिको रचना मानी गई है।६ (स ) प्रश्न उपनिषदें सृष्टिकर्ताको अनादि मानकर कहा गया है कि जिस समय ईश्वरको सृष्टिके रचनेको इच्छा हुई, उस समय ईश्वरने रयि और प्राणके युगलको पैदा किया । (ङ) मुण्डक उपनिषदें अक्षरसे सृष्टि मानी गई १. देखिये वेल्वेल्कर और रानडेकी History of Indian Philosophy Vol. II अध्याय १। २. ऐतरेयब्राह्मण ५-२३ । देखिये वही, अध्याय २ । ३. तैत्तिरीयब्राह्मण ११-२-९ । वही । ४. शतपथब्राह्मण ६-१-१-८ और आगे । वही । ५. बृहदारण्यक उ. अध्याय १। ६. छान्दोग्य उ. ३-१९-१ । ७. प्रश्न उ.१-४।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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