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श्रीमद्राजचन्द्रजेनशास्त्रमालायां
'विशेष' की ओर अधिक ध्यान दिया, और परमाणुवादका विशेष रूपसे अध्ययन किया, तथा उत्तरकालीन नैयायिकोंने न्याय और तर्कको वृद्धिंगत करनेमें अपनी शक्ति लगाई इसलिये आगे चलकर न्याय और वैशेषिक सिद्धांतों में परस्पर बहुत अन्तर पड़ता गया । यह अन्तर इतना बढ़ा कि वैशेषिकोंके पदार्थोंका खण्डन करनेके लिये नव्य-नैयायिक रघुनाथ आदिको 'पदार्थखण्डन' जैसे ग्रंथोंकी रचना करनी पड़ी। गुणरत्नसूरिने नैयायिक और वैशेषिकोंके मतको अभिन्न' बताते हुए उनके साधुओंके समान वेष और आचारका वर्णन करते हुए लिखा है- " ये लोग निरन्तर दण्ड धारण करते हैं, मोटी लंगोटी पहिनते हैं, अपने शरीरको कंबलसे ढके रहते हैं, जटा बढ़ाते हैं, भस्म लपेटते हैं, यज्ञोपवीत रखते हैं, हाथमें जलपात्र रखते हैं, नीरस भोजन करते हैं, प्रायः वृक्षके नीचे वनमें रहते हैं, तूंबी रखते हैं, कन्दमूल और फलके ऊपर रहते हैं, आतिथ्यकर्म में रत रहते हैं, कोई सस्त्रीक होते हैं और कोई स्त्री रहित होते हैं, दोनोंमें स्त्री रहित अच्छे समझे जाते हैं । ये पंचाग्नि तप तपते हैं, संयमकी उत्कृष्ट स्थिति में नग्न रहते है और प्रातःकाल दांत, पेट आदिको साफ करके अंगमें भस्म लगाकर शिवका ध्यान करसे हैं । जब इनको यजमान लोग नमस्कार करते हैं, ये 'ओं नमः शिवाय' बोलते हैं, और संन्यासी लोग केवल 'नमः शिवाय' कहते हैं । ये तपस्त्री शैव, पाशुपत, महाव्रतधर और कालमुखके भेदसे चार प्रकारके होते हैं । नैयायिक और वैशेषिक्रोंका देवताके विषयमें मतभेद नहीं है ।"
न्याय-वैशेषिकों में मतभेद
१ वैशेषिक लोग शब्दको भिन्न प्रमाण नहीं मानते, परन्तु नैयायिक वेदोंके प्रामाण्यको स्वीकार करते हैं । नैयायिक शब्दको भिन्न प्रमाण मानकर वेदोंके प्रमाणके अतिरिक्त ऋषि, आर्य और म्लेच्छ आप्तोंको प्रमाण मानते हैं ।
२ नैयायिक उपमानको भिन्न प्रमाण मानते हैं, तथा अर्थापत्ति, संभव और ऐतिह्यको प्रमाण मान कर उनका प्रत्यक्ष, अनुमान आदि चार प्रमाणोंमें अंतर्भाव करते हैं । वैशेषिक सूत्रोंमें उक्त प्रमाणोंका कोई उल्लेख नहीं । वैशेषिक प्रत्यक्ष और अनुमान केवल दो ही प्रमाण मानते हैं ।
३ नैयायिक लोग सोलह पदार्थ मानते हैं । न्यायसूत्रोंमें द्रव्य, गुण, कर्म, विशेष और समवायके विषय में कोई चर्चा नहीं आती । वैशेषिकसूत्रोंकी चर्चा प्रधानतया द्रव्य, गुण आदि पदार्थोंके संबंध में ही होती हैं ।
४ वैशेषिकसूत्रोंमें ईश्वरका नाम नहीं । न्यायसूत्र ईश्वरका अस्तित्व सिद्ध करते हैं ।
५ वैशेषिक मोक्षको निश्रेय अथवा मोक्ष नामसे कहते हैं, और शरीरसे सदा के लिये संबंध छूट जानेको मोक्ष मानते हैं । नैयायिक मोक्षको अपवर्ग नामसे कहते हैं, और दुखके क्षयको अपवर्ग मानते हैं ।
६ वैशेषिक पीलुपाकके सिद्धांतको और नैयायिक पिठरपाकके सिद्धांतको मानते हैं ।
( १ ) वैदिक युगके देव समझ कर सूर्य आदिको
वैदिक साहित्य में ईश्वर के विविध रूप
लोग सूर्य, चन्द्र, उषा, अग्नि, विद्युत्, आकाश आदिको अपना आराध्य पूजा और आराधना करते थे। धीरे-धीरे सूर्य आदिका स्थान इन्द्र, वरुण
१. अन्ये केचनाचार्याः नैयायिकमताद्वैशेषिकैः सह भेदं पार्थक्यं न मन्यन्ते । एकदेवतत्त्वेन तत्त्वानां मिथोऽन्तर्भावेनाल्पीयस एव भेदस्य भावाच्च नैयायिकवैशेषिकाणां मिथो मतैक्यमेवेच्छन्तीत्यर्थः । षड्दर्शनसमुच्चयटीका पृ. १२१ ॥
२. देखिये दासगुप्तकी A History of Indian Philosophy, Vol. I, पृ. ३०४-५ ।