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________________ ३२१ स्याद्वादमञ्जरी ( परिशिष्ट) सूत्रोंमें आत्माके विषयमें प्रश्न किये जानेपर आत्माका स्पष्ट विवेचन न करके बार बार यही कहा गया है कि रूप आत्मा नहीं, वेदना आत्मा नहीं, संज्ञर आत्मा नहीं, संस्कार आत्मा नहीं, विज्ञान आत्मा नहीं' तथा जो लोग रूप, वेदना आदिको आत्मा समझते हैं, उनके सत्कायदृष्टि कही जाती है। महायान सम्प्रदायने इसी अनत्तावाद ( नैरात्म्यवाद ) पर अपने विज्ञानवाद और शून्यवादकी स्थापना कर क्लेशावरण और ज्ञेयावरण के नाश करनेके लिये नैरात्म्यवादके प्रतिपादनपूर्वक आत्मदृष्टिसे क्लेशोंको उत्पत्ति बतायी है । नागार्जुनने कहा है, "बुद्धने यह भी कहा है कि आत्मा है, और यह भी कहा है कि आत्मा नहीं है। तथा बुद्धने आत्मा और अनात्मा किसीका भी उपदेश नहीं दिया ।" १. मज्झिमनिकाय, महापुण्णमसुत्त १०९। २. सत् कायः पंच उपादानस्कंधाः एव । तत्राहं मम दृष्टिः । अभिधर्मकोश ५-७ । ३. सत्कायदृष्टिप्रभवानशेषान् क्लेशांश्च दोषांश्च धिया विपश्यन् । आत्मानमस्याविषयं च बुद्ध्वा । योगी करोत्यात्मनिषेधमेव ॥ माध्यमिककारिका १८-१८ । ४. आत्मेत्यपि प्रज्ञपितमनात्मेत्यपि देशितः। बुद्ध त्मा न चानात्मा कश्चिदित्यपि देशितं ॥ माध्यमिककारिका १९-६ ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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