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________________ स्याद्वादमञ्जरी (परिशिष्ट ) ३१३ अनादि कालकी वासनासे, पदार्थोंका दृष्टा और दृश्य रूप समझनेवाली विज्ञानप्रकृतिके स्वभावसे, तथा पदार्थोंका विचित्र अनुभव करनेसे' आलयविज्ञानमें प्रवृत्तिविज्ञानको लहरें उठा करती हैं। यह आलयविज्ञान उत्पाद, स्थिति और लयसे रहित है, परन्तु यह क्षणिक धारा है, कोई नित्य पदार्थ नहीं। जिस समय अविद्याके नष्ट होनेसे वासनाका अंकुर नष्ट हो जाता है, उस समय क्षोभोत्पादक ग्राह्य-गाहक भाव भी नहीं रहता। इस दशामें अहंकारसे रहित आलयविज्ञान भी व्यावृत्त हो जाता है और केवल एक निर्मल चित्त अविशिष्ट रहता है। इसी अवस्थाको अर्हदअवस्थाके नामसे कहा गया है; और यहाँ योगी लोगोंका चित्त अद्वयलक्षण विज्ञप्तिमात्रमें ही स्थित हो जाता है। इस दशाको विज्ञानवादियोंके शास्त्रोंमें तथता, शन्यता, तथागतगर्भ आदि नामोंसे कह कर उसका नित्य, ध्रुव, शिव और शाश्वत रूपसे वर्णन किया गया है। शंका-यदि सम्पूर्ण धर्म केवल विज्ञप्तिमात्र हैं, तो चक्षु, श्रोत्र आदि इन्द्रिय रूप आदिको वे कैसे जानते हैं। समाधान-जब तक योगी लोग अद्वयलक्षण विज्ञप्तिमात्रताका साक्षात्कार नहीं करते, उस समय तक पदार्थोंमें ग्राह्य-ग्राहक रूप प्रवृत्तिका नाश नहीं होता। इस कारण वासनाके कारण ही इन्द्रियोंसे पदार्थोंका ग्राह्य-ग्राहक रूप ज्ञान होता है, वास्तवमें समस्त धर्म विज्ञानरूप ही है। शंका-विज्ञानवादी लोग तथागतगर्भका नित्य, ध्रुव आदि विशेषणोंसे वर्णन करते है। इसी प्रकार तैर्थिक लोग भी आत्माको नित्य, कर्ता, निर्गुण और विभु कहते हैं। फिर बुद्ध भगवानके नैगम्यवाद और तैर्थिकोंके आत्मवादमें क्या अन्तर है ? समाधान-तथागतगर्भका उपदेश तैथिकोके आत्मवादके तुल्य नहीं है। मुर्ख तैर्थिक लोगोंको नैरात्म्यवादके सुननेसे भय उत्पन्न होता है, इसलिये तथागतने सम्पूर्ण नुगतं स्पर्शमनास्कारादीनामाकर्षयत् स्रोतसा संसारमव्यूपरतं प्रवर्तत इति । विशिका ४, स्थिरमतिभाष्य, पृ. २२ । स्वचित्तदृश्यग्रहणानववोध, अनादिकालप्रपंचदौष्ठुल्यरूपवासनाभिनिवेश, विज्ञानप्रकृतिस्वभाव और विचि त्ररूपलक्षणकौतूहल । २. उत्पादस्थितिभंगवर्जम् । ३. तस्यां हि अवस्थायां आलयविज्ञानाश्रितदौष्ठुल्यनिरवशेषप्रहाणादालयविज्ञानं व्यावृत्तं भवति । सैव चाहदवस्था। त्रिशिका ४ भाष्य । ४. असंगने इसका वर्णन निम्न प्रकारसे किया है न सन्न चासन्न तथा न चान्यथा न जायते व्येति न चावहीयते । न वर्धते नापि विशुद्धयते पुनः विशुद्धयते तत्परमार्थलक्षणम् ।। महायानसूत्रालंकार । यावद् विज्ञप्तिमात्रत्वे विज्ञानं नावतिष्ठति । ग्राह्यद्वयस्यानुशयस्तावन्न विनिवर्तते ॥ यावद् अद्वयलक्षणे विज्ञप्तिमात्रे योगिनश्चितं न प्रतिष्ठितं भवति । तावद् ग्राह्यग्राहकानुशयो न विनिवर्तते न प्रहीयत । त्रिशिका २६ भाष्य । प्रो. शेर्बाट्स्की (Stcherbatsky) ने विज्ञानवादियोंके आलयविज्ञानके सिद्धांतको, विचारसंततिको छोड़ प्रच्छन्न रूपसे नित्य आत्मा माननेके सिद्धांतकी ओर आना बताया है-This represents a ४०
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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