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________________ ३१२ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां विज्ञानवाद इसे योगाचार भी कहते हैं । विज्ञानवादी भी शून्यवादियोंकी तरह सब धर्मोको निस्सभावर मानते हैं। विज्ञानवादियोंके मतमें विज्ञानको छोड़कर बाह्य पदार्थ कोई वस्तु नहीं है। जिस प्रकार जलता हुमा काष्ठ ( अलातचक्र) चक्र रूपसे घूमता हुआ मालूम होता है, अथवा जिस प्रकार तैमिरिक पुरुषको केशमें मच्छरका ज्ञान होता है, उसी तरह कुदृष्टि से युक्त लोगोंको अनादि वासनाके कारण पदार्थों का एकत्व, अन्यत्व, उभयत्व और अनुभयत्व रूप ज्ञान होता है, वास्तवमें समस्त भाव स्वप्न-ज्ञान, माया और गन्धर्व नगरकी तरह असत् रूप हैं। इसलिये परमार्थ सत्यसे स्वयंप्रकाशक विज्ञान ही सत्य है। यह सब दृश्यमान जगत विज्ञानका ही परिणाम है, और यह संवृति सत्यसे ही दृष्टिगोचर होता है। विज्ञानवादियोंके मतमें चित्त ही हमारी वासनाका मूल कारण है । इस चित्त में सम्पूर्ण धर्म कार्यरूपसे उपनिबद्ध होते हैं, अथवा यह चित्त सम्पूर्ण धर्मोमें कारणरूपसे उपनिबद्ध होता है, इसलिये इसे आलयविज्ञान कहते हैं । यह आलयविज्ञान सम्पूर्ण क्लेशोंका बोज है। जिस प्रकार जलका प्रवाह तृण, लकड़ी आदिको बहाकर ले जाता है, उसी तरह यह आलयविज्ञान स्पर्श, मनस्कार आदि धर्मोको आकर्षित करके अपने प्रवाहसे संसारको उत्पन्न करता है। जिस प्रकार समुद्रमें कल्लोलें उठा करती है, वैसे ही दृश्य पदार्थोंको स्वचित्तसे भिन्न समझनेसे, १. विज्ञानवादियों के मतमें जो योगकी साधना करके वोधिसत्वको दशभूमिको प्राप्त करते हैं, उन्हींको बोधिकी प्राप्ति होती है, इसलिये इस सम्प्रदायको योगाचार नामसे कहा जाता है। विद्वानोंका कहना है कि असंगके योगाचारभूमिशास्त्र नामक ग्रंथके ऊपरसे ब्राह्मणोंने विज्ञानवादको योगाचार संज्ञा दी है। त्रिविधस्य स्वभावस्य त्रिविधां निस्स्वभावतां । संघाय सर्वधर्माणां देशिता निस्स्वभावता ॥ वसुबंधु-त्रिंशिका २६ । तात्त्विक दृष्टिसे विचार किया जाय तो विज्ञानवाद और शून्यवादमें कोई अन्तर नहीं है। दोनों सम्पूर्ण पदार्थोंको निस्स्वभाव कहते हैं । अनन्तर इतना ही है कि विज्ञानवादी बाह्य पदार्थोंको मानकर उन्हें केवल विज्ञानका परिणाम कहते हैं, जब कि शून्यवादी बाह्य पदार्थोंको मायारूप मानकर निस्स्वभाव सिद्ध करने में सम्पूर्ण शक्ति लगा देते हैं । परन्तु जब उनसे पूछा जाता है कि यदि आप लोगोंके मतमें बाह्य पदार्थों की तरह माया स्वभावको ग्रहण करनेवाली कोई बुद्धि नहीं मानी गई, तो मायाकी उपलब्धि किस प्रकार होती है ? तो विज्ञानवादी उत्तर देता है कि ये सम्पूर्ण पदार्थ चित्तके विकार है, जो अनादि वासनाके कारण उत्पन्न होते है । देखिये दासगुप्त, A History of Indian philosophy, पृ. १६६,७, तथा बोधिचर्यावतारपंजिका ६-१५ से आगे । ३. चित्तं केशोण्डुकं माया स्वप्नगंधर्वमेव च । अलातं मृगतृष्णा च असन्तः ख्याति वै नृणाम् ॥ नित्यानित्यं तथैकत्वभुमयं नोभयं तथा। अनादिदोषसंबंधाः बालाः कल्पंति मोहिताः ॥ लंकावतार २-१५७,८ । द्वे सत्ये समुपाश्रित्य बुद्धानां धर्मदेशना । बाह्योऽर्थः सांवृतं सत्यं चित्तमेकमसांवृतम् ।। ५. सर्वसांक्लेशिकधर्मबीजस्थानत्वात् आलयः । आलयः स्थानमिति पर्यायौ । अथवा लीयन्ते उपनिबध्यतेऽ स्मिन् सर्वधर्माः कार्यभावेन । तद्वा लीयते उपनिबध्यते कारणभावेन सर्वधर्मेषु इत्यालयः। विजानाति विज्ञानं । त्रिशिका २, स्थिरमतिभाष्य पृ० १८ । ६. यथा हि मोघः तृणकाष्ठगोमयादीनाकर्षयन् गच्छति एवं आलयविज्ञानमपि पुण्यापुण्यानेज्यकर्मवासना
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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