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________________ स्याद्वादमञ्जरी (परिशिष्ट ) ३०१ भेद है-व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह । दर्शनके बाद अव्यक्त ग्रहणको व्यंजनावग्रह और व्यक्त ग्रहणको अर्थावग्रह कहते हैं । व्यंजनावग्रह चक्षु और मनसे नहीं होता, इसलिये वह शेष चार इन्द्रियोंसे ही होता है। अर्थावग्रह पाँच इन्द्रिय और मनसे होता है, इसलिये अर्थावग्रहके छह भेद, और व्यंजनावग्रहके चक्ष और मनको निकाल देनेसे चार भेद होते हैं। छह प्रकारके अर्थावग्रहकी तरह ईहा, अवाय और धारणाके भी छह-छह भेद हैं। इस प्रकार इन चौबीस भेदोंमें चार प्रकारका व्यंजनावग्रह मिला देनेसे मतिज्ञानके अठाईस भेद होते है। यह अठाईस प्रकारका मतिज्ञान बहु, एक, बहुविध, क्षिप्र, अक्षिप्र, अनिस्सृत, निस्सृत, अनुक्त, उक्त, ध्रुव और अध्रुवके भेदसे बारह बारह प्रकारका है । अतएव अठाईसको बारहसे गुणा करनेसे इन्द्रिय और अनिन्द्रिय प्रत्यक्षके कुल ३३६ भेद होते हैं। ____ जो ज्ञान केवल आत्माकी सहायतासे हो, उसे पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहते हैं। पारमार्थिक प्रत्यक्ष क्षायोपशमिक (विकल) और क्षायिक ( सकल) के भेदसे दो प्रकारका है । जो ज्ञान कर्मोंके क्षय और उपशमसे उत्पन्न होकर सम्पूर्ण पदार्थोंको जानने में असमर्थ हो, उसे क्षायोपशमिक कहते हैं। यह ज्ञान अवधि और मनपर्ययके भेदसे दो प्रकारका है। अवधिज्ञानावरणके क्षयोपशम होनेपर इन्द्रिय और मनको सहायताके बिना सम्पूर्ण रूपी पदार्थोंको जाननेको अवधिज्ञान कहते हैं । अवधिज्ञानका विषय तीन लोक है। इसके दो भेद हैं-भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय । अनुगामी, अननुगामी, वर्धमान, हीयमान, अवस्थित और अनवस्थितके भेदसे अवधिज्ञानके छह भेद भी होते है । मनपर्ययज्ञानावरणके क्षयोपशम होनेपर इन्द्रिय और मनके बिना मानुष क्षेत्रवर्ती जीवोंके मनकी बात जाननेको मनपर्याय ज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान मुनियोंके ही होता है। इसके दो भेद हैं-ऋजुमति और विपुलमति । क्षायिक अथवा सकल पारमार्थिक प्रत्यक्ष सम्पूर्ण कर्मोके सर्वथा क्षयसे उत्पन्न होता है। इसे केवलज्ञान कहते हैं। केवलज्ञानके दो भेद है-भवत्थ केवलज्ञान और सिद्धत्थ केवलज्ञान । भवत्थ केवलज्ञानके दो भेद है-सयोग और अयोग। सिद्धत्थ केवलज्ञानके दो भेद हैं-अनंतरसिद्ध और परंपरासिद्ध । इन्द्रिय और मनको सहायतासे होनेवाले अस्पष्ट ज्ञानको परोक्ष कहते हैं। परोक्ष ज्ञानके पांच भेद हैं-स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान, और आगम'। श्लोक २९ पृ० २५९, पं०७ : निगोद जिन जीवोंके एक ही शरीरके आश्रय अनन्तानन्त जीव रहते हों, उसे निगोद कहते हैं । निगोद जीवोंका आहार और श्वासोछ्वास एक साथ ही होता है, तथा एक निगोद जीवके मरनेपर अनन्त निगोद जीवोंका मरण और एक निगोद जीवके उत्पन्न होनेपर अनन्त निगोद जीवोंकी उत्पत्ति होती है। निगोद जीव एक श्वासमें अठारह बार जन्म और मरण करते हैं, और अति कठोर यातनाको भोगते हैं। ये निगोद जीव पृथिवी, अप, तेज, वायु, देव, नारकी, आहारक और केवलियोंके शरीरको छोड़कर समस्त लोकमें भरे हुए हैं। असंख्य निगोद जीवोंका एक गोलक होता है । इस प्रकारके असंख्य निगोद जीवों के असंख्य गोलकोंसे तीनों लोक व्याप्त हैं। ये सूक्ष्म निगोदिया जीव व्यावहारिक और अव्यावहारिक भेदोंसे 3 दो प्रकारके हैं। जिन जीवोंने अनादि निगोदसे एक बार भी निकलकर उस पर्यायको प्राप्त किया है, उन्हें व्यावहारिक निगोद जीव कहा गया है । तथा जो जीव कभी भी सूक्ष्म निगोदसे बाहर निकल कर नहीं आये, उन्हें अव्यावहारिक निगोद कहते हैं। जितने जीव अब तक मोक्ष गये हैं, अथवा भविष्यमें जायेंगे, वे सम्पूर्ण जीव निगोद जीवोंके अनन्तवें भाग भी नहीं हैं । अतएव जितने जीव व्यवहारराशिसे निकलकर १. स्मृति आदिके लक्षणके लिये देखिये, प्रस्तुत पुस्तकका पृ० २५१-२। २. नि नियतां गां भूमि क्षेत्र निवासं अनंतानंतजीवानां ददाति इति निगोदं । गोम्मष्टसार जीव० १९१ टीका । ३. गोम्मटसार जीव० आदि दिगम्बर ग्रन्थोंमें इन भेदोंको इतर और नित्य निगोदके नामसे कहा गया है।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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