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________________ ३०० श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां एकेन्द्रिय जीवके चार, और संज्ञो पंचेंद्रियके बारहवें गुणस्थान तक दसों प्राण होते हैं। तेरहवें गुणस्थानमें वचन, श्वासोछ्वास, आयु और कायबल ये चार प्राण होते हैं । आगे चलकर इसी गुणस्थानमें वचनवलका अभाव होनेसे तीन, और श्वासोछ्वासका अभाव होनेसे दो प्राण रह जाते हैं । चौदहवें गुणस्थानमें कायबलका भी अभाव होनेसे केवल एक आयु प्राण अवशेष रह जाता है। सिद्ध जीवोंके मोक्षावस्थामें शरीर नहीं रहता, अतएव सिद्धोंके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र आदि भावप्राण माने गये है। अतएव संसारी जीव द्रव्यप्राणोंकी अपेक्षा, और सिद्ध जीव भावप्राणोंकी अपेक्षासे जीव कहे जाते हैं। श्लोक २८ पृ० २५१, पं०८ : ज्ञानके भेद ज्ञानके दो भेद है-सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान । सम्यग्ज्ञानके दो भेद हैं-प्रत्यक्ष और परोक्ष । इन्द्रिय आदि सहायता के बिना केवल आत्माके अवलम्बनसे पदार्थोके स्पष्ट जाननेको प्रत्यक्ष और इन्द्रिय आदिको सहायता से पदार्थोके अस्पष्ट ज्ञान करनेको परोक्ष ज्ञान कहते हैं। प्रत्यक्ष ज्ञानके दो भेद हैंसांव्यवहारिक और पारमार्थिक । बाह्य इन्द्रिय आदिकी सहायता से उत्पन्न होनेवाले ज्ञानको सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं । सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष दो प्रकारका है-इन्द्रियोंसे होनेवाला और मनसे होनेवाला। इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष और अनिन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष दोनोंके अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चार-चार भेद है।५ इन्द्रिय और मनके निमित्तसे दर्शनके बाद होनेवाले ज्ञानको अवग्रह कहते हैं। अवग्रह के जाने हुए पदार्थमें विशेष इच्छा रूप ज्ञानको ईहा कहते हैं; जैसे बगुलोंकी पंक्ति और पताकाको देखकर यह ज्ञान होना कि यह पताका होनी चाहिये । ईहाके बाद विशेष चिह्नोंसे पताकाका ठीक-ठोक निश्चितरूप ज्ञान होना अवाय ( अपाय ) है। तथा जाने हुए पदार्थको कालान्तरमें नहीं भूलना, धारणा है। अवग्रहके दो १. जैनेतर दर्शनकारोंने इन्द्रियजनित ज्ञानको प्रत्यक्ष और अतीन्द्रिय ज्ञानको परोक्ष कहा है। २. नन्दिसूत्र में प्रत्यक्षके इन्द्रिय प्रत्यक्ष और नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष ये दो भेद किये गये हैं। यहां पहले तो मति ज्ञानको इन्द्रिय प्रत्यक्ष और अवधि आदि तीनको नोइंद्रिय प्रत्यक्षमें शामिल किया गया है, लेकिन आगे चलकर मतिज्ञानको श्रुतज्ञानकी तरह परोक्ष कहा गया है । अनुयोगद्वारसूत्रमें प्रत्यक्षके दो भेद करकेएक भागमें मतिज्ञानको और दूसरे में अवधि आदि तीनको गभित किया गया है। देखिये पं० सुखलालजीन्यायावतार-भूमिका (गुजराती) । तथा तुलनीय-अत्राह शिष्यः-"आये परोक्षम्" इति तत्त्वार्थसूत्रे मतिश्रुतद्वयं परोक्षं भणितं तिष्ठति कथं प्रत्यक्षं भवति । परिहारमाह-तदुत्सर्गव्याख्यानम् । इदं पुनरपवादव्याख्यानम् । यदि तदुत्सर्गव्याख्यानम् न भवति तर्हि मतिज्ञानं कथं तत्त्वार्थे परोक्षं भणितं तिष्ठति । तर्कशास्त्रे सांव्यावहारिक प्रत्यक्षं कथं जातं । यथा अपवादव्याख्यानेन मतिज्ञानं परोक्षमपि प्रत्यक्षज्ञान तथा स्वात्माभिमुखं भावश्रुतज्ञानमपि परोक्षं सत्प्रत्यक्ष भण्यते । ब्रह्मदेव-द्रव्यसंग्रहवृत्ति ५। ३. सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष वास्तवमें परोक्ष ही है-तद्धीन्द्रियानिन्द्रियव्यवहितात्मव्यापारसंपाद्यत्वात्परमार्थतः परोक्षमेव धूमादग्निज्ञानवद् व्यवधानाविशेषात् । किं चासिद्धयनैकान्तिकविरुद्धानुमानाभासवत्संशयविपर्ययानध्यवसायसंभवात्सदनुमानवत्संकेतस्मरणादिपूर्वकनिश्चयसंभवाच्च परमार्थः परोक्षमेवैतत् । यशोविजय-जैनतर्कपरिभाषा पृ० ११४, भावनगर । यहाँ यशोविजयजीने इन्द्रिय प्रत्यक्ष और अनिन्द्रिय प्रत्यक्षके मति और श्रुत दो भेद करके मतिज्ञानके अवग्रह आदि चार और श्रुतज्ञानके चौदह भेद किये हैं-तदेवं सप्रभेदं सांव्यवहारिकं मतिश्रुतलक्षणं प्रत्यक्ष निरूपितम् । जनतर्कपरिभाषा । उमास्वाति, पूज्यपाद, अकलंक आदि आचार्योंने मतिज्ञानके इन्द्रियजन्य और अनिन्द्रियजन्य ज्ञानके दो भेद करके मतिज्ञानके अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चार भेद किये हैं।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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