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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां मन, वचन, कायका निरोध करके शैलेशीकरण करता हुमा अयोगी होकर पांच ह्रस्व अक्षरोंके उच्चारण करनेके समय मात्रमें मोक्ष प्राप्त करता है।
हेमचन्द्र', यशोविजय आदि विद्वानोंने उपनिषद, गीता आदि वैदिक ग्रन्थों में आत्मव्यापकताका अपने सिद्धांतसे समन्वय करके इसे आत्मगौरवका सूचक कहकर सम्मानित किया है।
कर्मोकी स्थितिको शीघ्र भोगनेके लिये जैनसिद्धांतमें समुद्धात क्रियासे मिलती जुलती पातंजल योगदर्शनमे सोपक्रम आयुके विपाकमें वहुकायनिर्माण क्रिया मानी गई है। यद्यपि सामान्य नियमके अनुसार, विना भोगे हुए कर्म करोड़ों कल्पोंमें भी क्षय नहीं हो सकते, परन्तु जिस प्रकार गीले वस्त्रको फैलाकर सुखाने में वस्त्र बहुत जल्दी सूख जाता है, अथवा जिस प्रकार सूखे हुए धासमें अग्नि डालनेसे हवाके अनुकूल होनेपर घास बहुत जल्दी जलकर भस्म हो जाती है, उसी प्रकार जिस समय योगी एक शरीरसे कर्मके फलको भोगनेमें असमर्थ होता है, उस समय.वह संकल्प मात्रसे बहुतसे शरीरोंका निर्माण कर ज्ञान-अग्निसे कर्मोका नाश करता है । इसीको योगशास्त्रमें बहुकायनिर्माणद्वारा सोपक्रम आयुका विपाक कहा है। इन बहुतसे शरीरोंमें कभी योगी लोग एक ही अन्तःकरणसे प्रवृत्ति करते हैं। वायुपुराणमें भी जिस प्रकार सूर्य अपनी किरणोंको वापिस खींच लेता है, उसी प्रकार एक शरीरसे एक, दो, तीन आदि अनेक शरीरोंको उत्पन्न करके इन शरीरोंको पीछे खींचनेका उल्लेख है। श्लो. ९ पृ. ७५ पं. २ : लोक
जैनधर्मके अनुसार ऊर्ध्व, मध्य और अधोलोक ये लोकके तीन विभाग किये गये हैं। यह लोक चौदह राजू ऊंचा है। मूलसे सात राजूकी ऊंचाई तक अधोलोक, और एक लाख चालीस योजन सुमेरु पर्वतकी ऊंचाईके समान ऊंचा मध्यलोक है । मेरुकी जड़के नीचेसे अघोलोक आरंभ होता है । अधोलोकमें रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमोप्रभा, महातमप्रभा ,नामके सात नरक हैं। इन नरकोंमें नारकी जीव रहते हैं। इनमें ४९ पटल हैं । नरकोंमें छेदन, भेदन आदि महान् भयंकर कष्ट सहने पड़ते हैं । नरकमें अकाल मृत्यु नहीं होती। अधोलोकसे ऊपर एक राजू लम्बा, एक राजू चौड़ा और एक लाख चालीस.योजन ऊंचा मध्यलोक है। मध्यलोकके बीच में एक लाख योजनके विस्तारवाला जम्बूद्वीप है । जम्बूद्वीपको चारों ओरसे १. देखिये योगशास्त्र।तथा, लोकपूरणश्रवणादेव हि परेषामात्मविभुत्ववादः समुद्भुतः। तथा चार्थवाद:-"विश्वत
श्चक्षुरुत विश्वतो मुखो विश्वतो बाहुरुत विश्वतः पात्" इत्यादि । तथा चासो भवति समीकृतभवोपग्राहि
कर्मा विरलीकृतार्द्रशाटिकादिज्ञातेन क्षिप्रं तच्छोपोपपत्तेः । शास्त्रवार्तासमुच्चय ९-२१ टीका । २. देखिए पं. सुखलालजी-चौथा कर्मग्रन्थ पृ. १५६ । ३. पाद ४ सू. २२, तथा पाद ४ सू. ४,५ का भाष्य और टीका; पं. सुखलालजी-चौथा कर्मग्रन्थ 'प.
१५६ । तथा तुलनीय-तत्त्वार्थभाष्य २-१५ । ४. तुलनीय यशोविजय-क्लेशहानोपाय-द्वात्रिंशिका; तथा-समाधिसमृद्धिमाहात्म्यात्प्रारब्धकर्मव्यतिरिच्यमा
नानां कृत्स्नामेव कर्मणां विभिन्नविपाकसमयानामपि कायव्यूहेष्वेकदा भोगेन जीवात्ममहत्त्वं साधयता क्षयाभ्युपगमेनैव व्याकुप्येत यतो निरुक्ता भगवती श्रुति: "अचिन्त्यो हि समाधिप्रभावः" । पं. बालकृष्ण
मिश्र प्रणीत न्यायसूत्रवृत्ति पर विषमस्थल तात्पर्यविवृति पृ. २१-२२ । ५. एकस्तु प्रभुशक्त्या वै बहुधा भवतीश्वरः ।
भूत्वा यस्मात्तु बहुधा भवत्येकः पुनस्तु सः॥ तस्माच्च मनसो भेदा जायन्ते चैत एव हि विायुपु. ६६-१४३ । एकघा स द्विधा चैव त्रिधा च बहुधा पुनः ।। योगीश्वरः शरीराणि करोति विकरोति च । प्राप्नुयाद्विषयान्कश्चित् कैश्चिदुग्रं तपश्चरेत् ।। संहरेच्च पुनस्तानि सूर्यो रंश्मिगणानिव । वायुपु. ६६-१५२ ।