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________________ स्याद्वादमञ्जरी (परिशिष्ट ) २८९ अमर्त मानकर भी व्यक्तिको अपेक्षा आत्माको मूर्त ही मानना चाहिये। इसलिये निश्चयनयसे आत्मा लोकके वरावर असंख्यात प्रदेशोंका धारक है, और व्यवहार नयकी अपेक्षा संकोच और विस्तारवाला है। इस विषयका स्पष्टीकरण करते हुए अन्य स्थलोंपर जैनशास्त्रोंमें आत्माको नैयायिक, मीमांसक आदि दर्शनोंकी तरह प्रदेशोंकी अपेक्षा व्यापक न मान ज्ञानको अपेक्षा व्यवहार नयसे व्यापक माना गया है। इस सिद्धांतकी रामानुजके सिद्धांतसे तुलना की जा सकती है। रामानुज आचार्यके सिद्धान्तमें भी आत्माको ज्ञानकी अपेक्षा संकोच और विकासशील माना गया है। इस मतमें वास्तवमें अणु-परिमाण आत्मामें संकोच-विकास नहीं होता, किन्तु आत्माके कर्मबंधको अवस्थामें संकोच और विकास होता है। विकासको उत्कृष्ट सीमा कर्मबंधसे रहित मोक्ष अवस्थामें ही हो सकती है। न्यायकन्दलीकार श्रीधर आचार्यने भी आत्माको सर्वव्यापक मानकर आत्माके बुद्धि आदि गुणोंका शरीरमें ही अस्तित्व माना है। श्लो.९ पृ. ७५ पं. १ : केवलीसमुद्घात वेदनीय, नाम और गोत्र कर्मकी स्थितिसे आयु कर्मको स्थिति कम रह जानेपर वेदनीय आदि और आयु कर्मोको स्थिति बराबर करनेके लिए समुद्घात क्रिया की जाती है। समुद्घात करनेसे अन्तर्मुहुर्त पहले शुभोपयोग रूप 'आवर्जीकरण' नामकी एक दूसरी क्रिया होती है। इस क्रियाको श्वेताम्बर साहित्यमें 'आयोजिकाकरण' और 'आवश्यककरण' नामसे भी कहा गया है। केवलीसमुद्घातके प्रथम समयमें आत्माके प्रदेश अपनी देहके बराबर स्थूल दण्डके आकार होते हैं। आत्मप्रदेशोंका यह आकार लोकके ऊपरसे नीचे तक चौदह रज्जूपरिमाण होता है। ये आत्मप्रदेश दूसरे समयमें पूर्व और पश्चिममें कपाट (किवाड़ ) के आकारके हो जाते हैं। तीसरे समयमें इन प्रदेशोंका आकार फैलकर मन्थान (मथनी ) के समान हो जाता है। चौथे समयमें ये समस्त लोकमें व्याप्त हो जाते हैं। इसके बाद पांचवें, छठे, सातवें और आठवें समयमें आत्माके प्रदेश क्रमसे मन्थान, कपाट. दण्डके आकार होकर पूर्ववत् अपने शरीरके बराबर हो जाते हैं। जिस समय मोक्ष प्राप्त करने में एक अन्तर्मुहुर्तका समय बाकी रह जाता है, उस समय केवली समुद्घात करते हैं । रत्नशेखरसूरि आदि विद्वानोंके मतमें जिस जीवकी आयु छह महीनेसे अधिक है, यदि उसे केवलज्ञान हो जाय, तो वह जीव निश्चयसे समुद्घात करता है । तथा अन्य केवलियोंके समुद्घात करनेके संबंधमें कोई नियम नहीं है। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणने इस मतका विरोध किया है। समुद्घात करनेके पश्चात् केवली १. शक्त्या विभुः स इह लोकमितप्रदेशो, व्यक्त्या तु कर्मकृतसौवशरीरमानः । यत्रैव यो भवति दृष्टगुणः स तत्र कुम्भादिवद्विशदमित्यनुमानमत्र ॥ यशोविजय-न्यायखंडखाद्य । २. निश्चयनयतो लोकाकाशप्रमितासंख्येयप्रदेशप्रमाणः । वा शब्देन तु स्वसंवित्तिसमुत्पन्नकेवलज्ञानोत्पत्तिप्रस्तावे ज्ञानापेक्षया व्यवहारनयेन लोकालोकव्यापकः। न च प्रदेशापेक्षया नैयायिकमीमांसकसांख्यमतवत । ब्रह्मदेव द्रव्यसंग्रहवृत्ति गा० १०। ३. स्वयमपरिच्छिन्नमेव ज्ञानं संकोचविकासाहमित्युपपादयिष्यामः । अतः क्षेत्रज्ञावस्थायां कर्मणा संकुचित स्वरूपं तत्तत्कर्मानुगुणतरतमभावेन वर्तते । श्रीभाष्य १-१-१ । प्रो० ध्रुव-स्याद्वादमंजरी पृ० ११६ नोट्स । ४. पीछे देखिये, पृ०६८। ५. पं० सुखलालजी-चौथा कर्मग्रन्थ, पृ० १५५ । ६. यः षण्मासाधिकायुष्को लभते केवलोद्गमम् । करोत्यसी समुद्धातमन्ये कुर्वन्ति वा न वा ।। गुणस्थानक्रमारोहण ९४ । कम्मलहुयाए समओ भिन्नमुहुत्तावसेसओ कालो ॥ अन्ने जहन्नमेयं छम्मासुक्कोसमिच्छति ॥ तं नाणंतरसेलेसिवयणमओ जं च पाडिहेराणं । पच्चप्पणमेव सुए इहरा गहणंपि होज्जाहि ॥ विशेषावश्यक भा. ३०४८, ३०४९ ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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