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________________ २६८ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक ३२ परतीर्थिकैरपि तादृक्प्रकारदुरधीतकुतर्कयुक्तीरुपदर्य जगदिदं व्यामोहमहान्धकारे निक्षिप्तमिति । तजगदुद्धर्तु मोहमहान्धकारोपप्लवात् क्रष्टुम् नियतं निश्चितम् त्वमेव नान्यः शक्तः समर्थः। किमर्थमित्थमेकस्यैव भगवतः सामर्थ्यमुपवर्ण्यते इति विशेपणद्वारेण कारणमाह । अविसंवादिवचनः। कपच्छेदतापलक्षणवरीक्षात्रयविशुद्धत्वेन फलप्राप्तौ न विसंवदतीत्येवंशीलमविसंवादि । तथाभूतं वचनमुपदेशो यस्यासावविसंवादिवचनः । अव्यभिचारिवागित्यर्थः। यथा च पारमेश्वरी वाग् न विसंवादमासादयति तथा तत्र तत्र स्याद्वादसाधने दर्शितम् ।। कषादिस्वरूपं चेत्थमाचक्षते प्रावचनिकाः "पाणवहाईआणं पावट्ठाणाण जो उ पडिसेहो। झाणज्झयणाईणं जो य विही एस धम्मकसो ॥१॥ बज्झाणुट्टाणेणं जेण ण बाहिज्जए तयं णियमा । संभवइ य परिसुद्धं सो पुण धम्मम्मि छेउत्ति ॥२॥ जीवाइभाववाओ बंधाइपसाहगो इहं तावो । एएहिं परिसुद्धो धम्मो धम्मत्तणमुवेइ ॥ ३ ॥ तीर्थान्तरीयाप्ता हि न प्रकृतपरीक्षात्रयविशुद्धवादिन इति ते महामोहान्धतमस एव जगत् पातयितुं समर्थाः, न पुनस्तदुद्धर्तुम् । अतः कारणात् । कुतः कारणात् ? कुमतध्वान्तार्णवान्तःपतितभुवनाभ्युद्धारणासाधारणसामर्थ्यलक्षणात् । हे त्रातस्त्रिभुवनपरित्राणप्रवीण | त्वयि काक्वाव कुतर्क पूर्ण पुर्ण युक्तियोंसे इस संसारको भ्रममें डाल देते हैं। इसलिये मोह महा अन्धकारसे जगत्को बचानेके लिये आप ही समर्थ हैं, दूसरा कोई नहीं। क्योंकि आपके वचनोंमें कोई विसंवाद नहीं है। कारण कि आपके वचन कष, छेद और ताप रूप परीक्षाओंसे विशुद्ध है, अतएव फलकी प्राप्तिमें आपके वचनोंमें कोई विरोध न होनेसे आपके वचन निर्दोष हैं। आपके वचनोंमें विरोधका अभाव स्याद्वादको सिद्धि करते समय प्रदर्शित किया जा चुका है। धर्मशास्त्रके पंडितोंने कष आदिका स्वरूप निम्न प्रकारसे कहा है "प्राणवध आदि पाप स्थानोंके त्याग, और ध्यान, अध्ययन आदिकी विधिको कष. कहते हैं। जिन बाह्य क्रियाओंसे धर्ममें बाधा न आती हो, और जिससे निर्मलताकी वृद्धि हो, उसे छेद कहते हैं। जीवसे. सम्बद्ध दुःख और बन्धको सहन करना ताप है । कष आदिसे शुद्ध धर्म धर्म कहा जाता है।" अन्य तैर्थिक लोग कष, छेद और ताप रूप परीक्षाओंसे शुद्ध वचनोंको नहीं बोलते, अतएव वे लोग संसारको महा मोहांधकारमें गिरानेवाले होते हैं, इसलिये उनके द्वारा संसारका उद्धार नहीं हो सकता। अतएव हे भगवन् ! आपमें कुमतरूप समुद्रमें पड़े हुए लोगोंका उद्धार करनेकी असाधारण सामर्थ्य है, इसलिये १. छाया-प्राणवधादीनां पापस्थानां यस्तु प्रतिषेधः । ध्यानाध्ययनादीनां यश्च विधिरेष धर्मकषः ॥ १॥ वाह्यानुष्ठानेन येन न बाध्यते तन्नियमात् । संभवति च परिशुद्धं स पुनर्घमें छेद इति ॥ २॥ जीवादिभाववादो बन्धादिप्रसाधक इह तापः । एभिः परिशुद्धो धर्मो धर्मत्वमुपैति ॥ ३॥ हरिभद्रसूरिकृतपञ्चवस्तुकचतुर्थद्वारे ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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