SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 310
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६० श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक २९ स्यन्ति च ते निगोदानामनन्तभागेऽपि' न वर्तन्ते नावर्तिषत न वय॑न्ति । ततश्च कथं मुक्तानां भवागमनप्रसङ्गः, कथं च संसारस्य रिक्तताप्रसक्तिरिति । अभिप्रेतं चैतद् अन्ययूथ्यानामपि । यथा चोक्तं वातिककारण "अत एव च विद्वत्सु मुच्यमानेषु सन्ततम् । ब्रह्माण्डलोकजीवानामनन्तत्वाद् अशून्यता ।। १॥ अत्यन्यूनातिरिक्तत्वयुज्यते परिमाणवत् । वस्तुन्यपरिमेये तु नूनं तेषामसम्भवः ।। २॥" इति काव्यार्थः ।। २९ ॥ है। अपरिमित वस्तुका न कभी अंत होता है, न वह घटती और न समाप्त होती है।" यह श्लोकका अर्थ है ॥२९॥ भावार्थ-(१) यदि संसारी जीवोंको बरावर मोक्ष मिलता रहे ( जैन शास्त्रोंके अनुसार छह महीने और आठ समयमें ६०८ जीव मोक्ष जाते हैं ) तो कभी यह संसार जीवों से खाली हो जाना चाहिये ! आजीविक मतानुयायी मस्करी (गोशाल) आदिका मत था कि मुक्त जीव फिरसे संसार में जन्म लेते हैं। अश्वमित्रनेभी इस प्रश्नको लेकर जैन संघमें वाद खड़ा किया था। स्वामी दयानन्दके अनुसार जीव महाकल्प कालपर्यंत मुक्तिके सुखको भोग कर फिरसे संसारमें उत्पन्न होते हैं । इस कथनकी पुष्टिके लिये दयानन्द स्वामीने ऋग्वेद तथा मुण्डक उपनिषद्के प्रमाण उद्धृत किये हैं।" जैन विद्वानोंकी मान्यता है कि जिस प्रकार बीजके जल जानेपर अंकुर उत्पन्न नहीं हो सकता, उसी प्रकार कर्मोंका सर्वथा क्षय होनेपर जीव फिरसे संसारमें जन्म नहीं लेते । पतंजलि, व्यास, अक्षपाद आदि ऋषियोंको भी यही मान्यता है। जैन सिद्धांतमें द्वीप और समद्रोंका असंख्यात परिमाण स्वीकार किया गया है। इन द्वीप-समुद्रोंमें अनन्तानन्त जीव रहते हैं। सबसे कम त्रस जीव है, बस जोकोंसे संख्यात गुणे अग्निकायिक, अग्निकायिक जीवोंसे अधिक पृथिवीकायिक, पृथ्वोंसे जलकायिक, जलसे वायुकायिक और वायुकायिकसे अनन्तगुणे वनस्पतिकायिक जीव हैं। वनस्पतिकायिक जीव व्यावहारिक और अव्यावहारिकके भेदसे दो प्रकारके होते हैं। जो जीव निगोदसे निकल कर पृथिवीकाय आदि अवस्थाको प्राप्त करके फिरसे निगोद अवस्थाको प्राप्त करते हैं, वे जीव व्यवहारिक कहे जाते हैं। तथा जो जीव अनादि कालसे निगोद अवस्थामें ही पड़े हुए हैं, उन्हें अव्यवहारिक कहते हैं । जैन सिद्धांतके अनुसार असंख्यात एकणिगोदसरीरे जीवा दव्वप्पमाणदो दिवा । सिद्धेहिं अणंतगुणा सव्वेण वितीदकालेण ॥ छाया-एकनिगोदशरीरे जीवा द्रव्यप्रमाणतो दृष्टा । सिद्धरनन्तगुणाः सर्वेण व्यतीतकालेन ॥ गोम्मटासारे जीव० १९५ । २. कांजनसंश्लेषात् संसारसमागमोऽस्तीति मस्करिदर्शनं । गोम्मटसार जीवकांड ६९ टोका । तथा, 'ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य' आदि, देखिये पीछे, स्याद्वादमंजरी पृ०४। ३. १-२४-१-२ । ४. ते ब्रह्मलोके ह परान्तकाले परामृतात् परिमुच्यन्ति सर्वे । मुण्डक उ० ३-२-६ । ५. देखिये सत्यार्थप्रकाश सं० १९८३ पृ० १५५ ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy