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________________ अन्य. यो. व्य. श्लोक २९] स्याद्वादमञ्जरी २५९ षणणां जीवनिकायानामेतद् अल्पबहुत्वम् । सर्वस्तोकास्त्रसकायिकाः। तेभ्यः संख्यातगुणाः तेजस्कायिकाः। तेभ्यो विशेषाधिकाः पृथिवीकायिकाः। तेभ्यो विशेषाधिका अप्कायिकाः। तेभ्योऽपि विशेषाधिका वायुकायिकाः । तेभ्योऽनन्तगुणा वनस्पतिकायिकाः । ते च व्यवहारिका अव्यवहारिकाश्च ।' "गोला य असंखिज्जा असंखणिग्गोअ गोलओ भणिओ। इक्किक्कम्मिणिगाए अणन्तजीवा मुणेअव्वा ॥१॥ सिज्झन्ति जत्तिया खलु इह संववहारजीवरासीओ। एंति अणाइवणस्सइ रासीओ तत्तिआ तम्मि ।। २ ॥२ इति वचनाद् यावन्तश्च यतो मुक्तिं गच्छन्ति जीवास्तावन्तोऽनादिनिगोदवनस्पतिराशेस्तत्रागच्छन्ति । न च तावता तस्य काचित् परिहाणिनिगोदजीवानन्त्यस्याक्षयत्वात्। निगोदस्वरूपं च समथरागराद अवन्तव्यम्। अनाद्यनन्तेऽपि काले ये केचिन्निवताः निर्वान्ति निर्वा अग्निकायसे विशेष अधिक पृथिवीकायिक, पृथिवीकायसे जलकायिक जलकायसे वायुकायिक और वायुकायसे अनंतगुणे वनस्पतिकायिक जीव हैं। व्यवहारिक और अव्यवहारिकके भेदसे वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकारके होते है "गोल असंख्यात होते हैं, एक गोलमें असंख्यात निगोद रहते हैं और एक निगोदमें अनन्त जीव रहते हैं। जितने जीव व्यवहारराशिसे निकल कर मोक्ष जाते है, उतने ही जीव अनादि वनस्पति राशिसे निकल कर व्यवहारराशि में आ जाते हैं।" इसलिये जितने जीव मोक्ष जाते हैं, उतने प्राणी अनादि निगोद [ देखिये परिशिष्ट ( क )] वनस्पति राशिमेसे आ जाते हैं। अतएव निगोद राशिमेंसे जीवोंके निकलते रहने के कारण संसारी जीवोंका कभी सर्वथा क्षय नहीं हो सकता। निगोदका स्वरूप समयसागर से जानना चाहिये। जितने जीव अब तक मोक्ष गये हैं, और आगे जानेवाले हैं, वे निगोद जीवोंके अनन्तवें भाग भी न है, न हुए है और न होंगे। अतएव हमारे मतमें न तो मुक्त जीव संसारमें लौटकर आते है, और न यह संसार जीवोंसे शन्य होता है । इसे दूसरे वादियोंने भी माना है । वार्तिककारने भी कहा है "इस ब्रह्माण्डमें अनन्त जीव है, इसलिये संसारसे ज्ञानी जीवोंकी मुक्ति होते हुए यह संसार जीवोंसे खाली नहीं होता। जिस वस्तुका परिमाण होता है, उसीका अंत होता है, वही घटती और समाप्त होती १. द्विविधा जीवा सांव्यवहारिका असांव्यवहारिकाश्चेति । तत्र ये निगोदावस्थात उद्वत्य पृथिवीकायि कादिभेदेषु वर्तन्ते ते लोकेषु दृष्टिपथमागताः सन्तः पृथिवीकायिकादिव्यवहारमनुपतन्तीति व्यवहारिका उच्यन्ते । ते च यद्यपि भूयोऽपि निगोदावस्थामुपयान्ति तथापि ते सांव्यवहारिका एव, संव्यवहारे पतितत्वात् । ये पुनरनादिकालादारभ्य निगोदावस्थामुपगता एवावतिष्ठन्ते ते व्यवहारपथातीतत्वादसांव्यवहारिकाः । प्रज्ञापनाटीकायां सू० २३४ । छाया-गोलाश्च असंख्येयाः असंख्यनिगोदो गोलको भणितः । एकैकस्मिन् निगोदे अनन्तजीवा ज्ञातव्याः ॥ १॥ सिध्यन्ति यावन्तः खलु इह संव्यवहारजीवराशितः। आयान्ति अनादिवनस्पतिराशितस्तावन्तस्तस्मिन् ॥ २॥
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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