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जैनदर्शनमें स्याद्वादका स्थान
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गया है, 'उस समय सत् भी नहीं था और असत् भी नहीं था। ईशावास्य, कठ, प्रश्न, श्वेताश्वतर आदि प्राचीच उपनिषदोंमें भी 'वह हिलता है और हिलता भी नहीं है, वह अणुसे छोटा है और बड़ेसे बड़ा है, सत् भी है, असत् भी है' आदि प्रकारसे विरुद्ध नाना गुणोंको अपेक्षा ब्रह्मका वर्णन किया गया है । भारतीय षट्दर्शनकारोंने भी इस प्रकारके विचारोंका प्रतिपादन किया है। उदाहरणके लिये, वेदान्तमें अनिर्वचनीयवाद, कुमारिलका सापेक्षवाद, बौद्धका मध्यममार्ग आदि सिद्धांत स्याद्वादसे मिलते जुलते विचारोंका ही समर्थन करते हैं। ग्रीक दर्शन में भी एम्पोडोक्लीज़ ( Empedocles ), एटोमिस्ट्स ( Atomists) और अनैक्सागोरस ( Anaxagoras ) दर्शमिकोंने इलिअटिक्स ( Eleaties ) के नित्यत्ववाद और हैरेक्लिटस ( Hereclitus ) के क्षणिकवादका समन्वय करते हुए पदार्थोके नित्य दशामें रहते हुए भी आपेक्षिक
१. नासदासीन्न सदासीत्तदानीम् । ऋग्वेद । १०-१२९-१।
यद्यपि सदसदात्मकं प्रत्येकं विलक्षणं भवति तथापि भावाभावयोः सहवस्थानमपि संभवति । सायण भाष्य। उ. यशोविजयजीका कथन है कि वेदोंमे भी स्याद्वादका विरोध नहीं किया गया है। देखिये इसी पृष्ठको टि.१। २. तदेजति तन्नेजति तदुरे तदन्तिके । ईसो ५ । अणोरणीयान् महतो महोयान् । कठ. २-२० । सदसच्चा
मृतं च यत् । प्रश्न २-५।। ३. प्रो. ध्रुवने वेदान्त और जैन दर्शनकी तुलना करते हुए लिखा है--While the Vedantin sees
intellectual peace in the absolute by transcending the antinomies of intellect, the Jain finds it in the fact of the relativity of knowledge and the consequent revelation of the many-sidedness of reality-the one leading to religious mysticism, the other to intellectual toleration.
प्रो. ध्रव, स्याद्वादमंजरी, प्रस्तावना, पृ. XII. ४. तुलनीय-अस्तीति काश्यपो अयं एकोऽन्तः नास्तीति काश्यपो अयं एकोऽन्तः यदनयोर्द्वयोः अन्तयोर्मध्यं
तदरूप्यं अनिदर्शनं अप्रतिष्ठं अनाभासं अनिकेतं अविज्ञप्तिकं यमुच्यते काश्यपः मध्यमप्रतिपदधर्माणां ।
काश्यपपरिवर्तन महायानसूत्र । ५. नैयायिक आदि दार्शनिकोंने किस प्रकारसे स्याद्वादके सिद्धांतको स्वीकार किया है, इसके विशेष जाननेके लिये देखिये षड्दर्शनसमुच्चय, गुणरत्नटीका, पृ. ९६-९८; दर्शन और अनेकांतवाद । तथा
इच्छन् प्रधानं सत्वाविरुद्धगुंफितं गुणः । सांख्यः संख्यावतां मुख्यो नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ॥ चित्रमेकमनेकं च रूपं प्रामाणिकं वदन् । योगो वैशेषिको वाऽपि नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ॥ प्रत्यक्षं भिन्नमात्रंशे मेयांशो तद्विलक्षणम् । गुरुज्ञानं वदन्ने नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ॥ जातिव्यक्त्यात्मकं वस्तु वदन्ननुभवोचिम्४ । भट्टो वापि मुरारिर्वा नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ।। अबद्धं परमार्थेन बद्धं च व्यवहारतः । ब्रुवाणो ब्रह्मवेदान्ती नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ।। ब्रुवाणा भिन्नभिन्नान्नियभेदव्यपेक्षया । प्रतिक्षिपेयु! वेदाः स्याद्वादं सार्वतांत्रिकम् ।
अध्यात्मसार ४५-५१ ।