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जैनदर्शनमें स्याद्वादका स्थान
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ज्ञातृधर्मकथा' और भगवतीसूत्र भी एक ही वस्तुको द्रव्यकी अपेक्षा एक, ज्ञान और दर्शन को अपेक्षा अनेक, किसी अपेक्षासे अस्ति,किसीसे नास्ति,और किसी अपेक्षाके अवक्तव्य कहा गया है। प्राचीन आगमों में स्याद्वादके सात भंगोंका उल्लेख नहीं मिलता, परन्तु यहाँ त्रिपदी (उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य), सिय अस्थि, सिय णत्थि, द्रव्य, गुण, पर्याय, नय आदि स्याद्वादके सूचक शब्दोंका अनेक स्थानोंपर उल्लेख पाया जाता है । आगम-ग्रन्थोंपर ईसाके पूर्व चौथी शताब्दीमें भद्रवाहकी दश नियुक्तियों में भी इन्हीं विचारोंको विशेप रूपसे प्रस्फुटित किया गया है। इसके पश्चात् ईसवी सन् प्रथम शताब्दीके आचार्य उमास्वातिके तत्त्वार्थाधिगमसूत्र और तत्त्वार्थभाष्यमें अनेकान्तवाद और विशेपकर नयवादको चर्चा विस्तृत रूपमें पायी जाती है। यहाँ अर्पित, अनपित, नयोंके भेद
और उपभेदोंका वर्णन विस्तारसे किया गया है। परन्तु यहाँ तक स्याद्वादके सात भगोंके नामोंका उल्लेख नहीं मिलता।
इन सात भंगोंका नाम सर्वप्रथम हमें कुन्दकुन्दके पंचास्तिकाय और प्रवचनसारमें दिखाई पड़ता है। यहाँ सात भंगोंके केवल नाम एक गाथामें गिना दिये गये है। जान पड़ता है कि इस समय जैन आचार्य अपने सिद्धांतोंपर होनेवाले प्रतिपक्षियोंके कर्कश तर्कप्रहारसे सतर्क हो गये थे, और इसीलिये बौद्धोके शून्यवादकी तरह जैन श्रमण अनेकांतवादको सप्तभंगीका ताकिकरूप देकर जैन सिद्धान्तोंको रक्षाके लिये प्रवृत्तिशील होने लगे थे। इसके पूर्व सप्तभंगी नयवाद अथवा अधिकसे अधिक स्यादस्ति, स्यान्नास्ति, स्यादवक्तव्य इन तीन मल भंगोंके रूपमें ही पाया जाता है । स्याद्वादको प्रस्फुटित करनेवाले जैन आचार्योंमें ईसवी सनकी चोथो शताब्दीके विद्वान् सिद्धसेन दिवाकर और समंतभद्रका नाम सबसे महत्वपूर्ण है। ये दोनों अपूर्व प्रतिभाशाली उच्च कोटिके दार्शनिक विद्वान थे । इन विद्वानोंने जैन तर्कशास्त्रपर सन्मतितर्क, न्यायावतार, युक्त्यनुशासन, आप्तमीमांसा आदि स्वतंत्र ग्रन्थोंकी रचना की। सिद्धसेन और समंतभद्रने अनेक प्रकारके दृष्टांतोंसे और नयोंके सापेक्ष वर्णनसे स्याद्वादका अभूतपूर्व ढंगसे प्रतिपादन किया, तथा जैनेतर सम्पूर्ण दृष्टियों को अनेकान्त दृष्टिके अंशमात्र प्रतिपादन कर मिथ्यादर्शनोंके समूहको जैनदर्शन बताते हुए अपनी सर्वसमन्वयात्मक उदार भावनाका परिचय दिया। इनके बाद ईसाकी चौथी-पांचवी शताब्दीमें मल्लवादि और जिनमद्रगणि क्षमाश्रमण नामके श्वेताम्बर विद्वानोंका प्रादुर्भाव हआ। मल्लवादि अपने समयके महान ताकिक विदान
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सुया, एगे वि अहं दुवे वि अहं जाव अणेगभूयभावभविए वि अहं । से केणट्ठाणं भंते, एगे वि अहं जाव।। सुया, दबढाए एगे अहं, नाणदसणट्ठाए दुवे वि अहं, पाएसट्ठाए अक्खए वि अहं अश्वए वि अहं, अव्वट्ठिए वि अहं उपओगट्ठाए अणेगभूयभावभविए वि अहं । ज्ञातृधर्मकथा ५-४६, पृ० १०७ । उ. यशोविजयजीने इसी भावको निम्न रूपसे व्यक्त किया हैयथाह सोमिलप्रश्ने जिनः स्याद्वादसिद्धये । द्रव्यार्थादहमेकोऽस्मि दृग्ज्ञानार्थादुभावपि ॥ अक्षयश्चाव्यवयश्वास्मि प्रदेशार्थविचारतः ।
अनेकभूतभावात्मा पर्यायार्थपरिग्रहात् ॥ अध्यात्मसार । २. या भंते, रयणप्पभा पुढवी अन्ना रयणप्पभा पुढवी ?
गोयमा, रयणप्पभा सिय आया, सिय नो आया, सिय अवत्तव्वं आया तिय नो आया तिय । भगवती १२-१०, पृ. ५९२ । उदधाविव सर्वसिंधवः समुदीर्णास्त्वयि नाथ दृष्टयः ।
न च तासु भवान् प्रदृश्यते प्रविभक्तासु सरित्स्विवोदधिः ॥ द्वा० द्वात्रिंशिका ०-१५ । ४. भद्द मिच्छादसणसमूहमइयस अमयसारस्स ।
जिणवयणस्स भगवओ संविग्गसुहादिमग्गस्स ॥ सन्मतितर्क, ३-६५ ।