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________________ ग्रंथ और ग्रंथकार व्यव्हार सत्यके भागे भी जैनसिद्धांतमें निरपेक्ष सत्य माना गया है, जिसे जैन पारिभाषिक शब्दोंमे केवलज्ञान के नामये कहा जाता है । स्याद्वादमें सम्पूर्ण पदार्थोका क्रम-क्रमसे ज्ञान होता है, परन्तु केवलज्ञान सत्यप्राप्तिकी वह उत्कृष्ट दशा है, जिसमें सम्पूर्ण पदार्थ और उन पदापोंकी अनन्त पर्यायों का एक साथ ज्ञान होता है। स्याहाद परोक्षज्ञानमें गभित होता है, इसलिये स्याद्वादसे केवल इन्द्रियजन्य पदार्थ ही जाने जा सकते है, किन्तु केवलशान पारमार्थिक प्रत्यक्ष है, अतः केवलज्ञानमें भूत, भविष्य और वर्तमान सम्पूर्ण पदार्थ प्रतिभासित होते है। अतएव स्यावाद हमें केवल जैसे-तैसे अर्ध सत्योंको ही पूर्ण सत्य मान लेने के लिये बाध्य नहीं करता। किन्तु वह सत्यका दर्शन करने के लिये अनेक मार्गोकी खोज करता है। स्याद्वादका कहना है कि मनुष्यकी शक्ति सीमित है, इसलिये वह आपेक्षिक सत्यको हो जान सकता है। पहले हमे व्यावहारिक विरोधोंका समन्वय करके आपेक्षिक सत्यको प्राप्त करना चाहिये । आपेक्षिक सत्यके जानेके बाद हम पूर्ण सत्य-केवलज्ञान-का साक्षात्कार करनेके अधिकारी हैं। स्याद्वादपर एक ऐतिहासिक दृष्टि-अहिंसा और अनेकान्त ये जैनधर्मके दो मूल सिद्धांत हैं। महावीर भगवानने इन्हीं दो मूल सिद्धांतोंपर अधिक भार दिया था। महावीर शारीरिक अहिंसाके पालन करनेके साथ मानसिक अहिंसा ( intellectual toleration ) के ऊपर भी उतना ही जोर देते हैं । महावीरका कहना था कि उपशम वृत्तिसे ही मनुष्यका कल्याण हो सकता है, और यही वृत्ति मोक्षका साधन है। भगवानका उपदेश था कि प्रत्येक महान् पुरुष भिन्न-भिन्न द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके अनुसार ही सत्यको प्राप्ति करता है । इसलिये प्रत्येक दर्शनके सिद्धांत किसी अपेक्षासे सत्य है। हमारा कर्तव्य है कि हम व्यर्थक वाद-विवादमें न पड़कर अहिंसा और शांतिमय जीवन यापन करें। हम प्रत्येक वस्तुको प्रतिक्षण उत्पन्न होती हुई और नष्ट होती हुई देखते हैं, और साथ ही इस वस्तुके नित्यत्वका भी अनुभव करते हैं, अतएव प्रत्येक पदार्थ किसी अपेक्षासे नित्य और सत, और किसी अपेक्षासे अनित्य और असत् आदि अनेक धर्मोसे युक्त है। अनेकांतवाद सम्बन्धी इस प्रकारके विचार प्रायः प्राचीन आगम ग्रंथोंमें देखनेमें आते हैं। गौतम गणधर महावीर भगवान से पूछते है-'मात्मा ज्ञान स्वरूप है, अथवा अज्ञान स्वरूप ?' भगवान उत्तर देते हैं--'आत्मा नियमसे जान स्वरूप है। क्योंकि ज्ञानके बिना यात्माकी वृत्ति नहीं देखी जातीं । परन्तु आत्मा ज्ञान रूप भी है और अज्ञानरूप भी है। १. समंतभद्रने आप्तमीमांसामें स्याद्वाद और केवल ज्ञानके भेदको स्पष्ट रूपसे निम्न श्लोकोंमें प्रतिपादन किया है तत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत्सर्वभासनं । क्रमभावि च यज्ज्ञानं स्याद्वादनयसंस्कृतं ॥१.१॥ उपेक्षाफलमाद्यस्य शेषस्यादानहानधीः । पूर्व वाऽज्ञाननाशो वा सर्वस्यास्य गोचरे ॥ १०२ ॥ स्याद्वादकेवलज्ञाने सर्वतत्त्वप्रकाशने । भेदः साक्षादसाक्षाच्च वस्त्वन्यतमं भवेत् ॥ १०५॥ तथा देखिये अष्टसहस्री, पृ. २७५-२८८ २. सर्वनयानां जिनप्रवचनस्यैव निबंधनत्वात् । किमस्य निबंधनमिति चेत् । उच्यते । निबंधनं चास्य 'आय भन्ते नाणे अन्नाणे' इति स्वामी गौतमस्वामिना पृष्टो व्याकरोति--'गोदमा णाणे णियमा अतो ज्ञानं नियमादात्मनि । ज्ञानस्यान्यव्यतिरेकेण वृत्त्यदर्शनात् । नयचक्र, हस्तलिखित ।। (जनसाहित्यसंशोधक १-४, पृ. १४६ )
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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